वीणा के तारों को ना तो अत्यधिक ढीला छोड़ो और ना ही इतना कसो कि उससे मधुर स्वर ही ना निकले। बिल्कुल यही बात वाणी पर भी लागू होती है। वीणा और वाणी दोनों को ही संयमित और संतुलित रखना जरूरी है। वाणी के तार जब बिगड़ते हैं। तो महाभारत रचती है। वीणा के तार जब -जब असंतुलित होते हैं। सुर बिगड़ जाते हैं। ऐसे में क्या हो मध्यम मार्ग? यही वह मध्यम मार्ग था। जिसकी खोज की भगवान बुद्ध ने।मात्र 29 वर्ष की आयु में संसार से विरक्त, वैराग्य, मोह माया त्याग कर वन में चले गए थे। बुद्ध 6 वर्षों तक घोर तपस्या के बाद भी अपनी ज्ञान पिपासा को शांत नहीं कर पाएं।
सुना है, आत्मा की मुक्तावस्था को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष के तीन मार्ग शास्त्रों में बताए गए हैं। इन्हीं में भक्ति मार्ग से भाव योग जुड़ा है। जिसमें वाणी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वाणी ही शब्द विधान करती है। जो बंद ह्रदय को भी मुक्त कर देता है। जब बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ। तब उन्हें इसका महत्व पता चला। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार एक बार उन्होंने स्त्रियों के एक गीत को सुना। उनमें से एक बोल रही थी। वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो ढीला छोड़ देने से उनसे सुरीला स्वर नहीं निकलेगा, तारों को इतना भी मत कसो।
जिससे वे टूट जाए। इन शब्दों के मर्म को समझ कर, उन्हें समझ आया की, किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती। अति सर्वत्र वर्जयेत शास्त्रों के यह शब्द तो आपने सुने ही होंगे?इन्हीं शब्दों को आत्मसात कर। गया में वट वृक्ष के नीचे संकल्प के साथ समाधिस्थ बुद्ध को निरंजना नदी के तट पर बोधिसत्व की प्राप्ति हुई। घोर तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे तथागत कहलाए।
बुद्ध का जन्म उस समय हुआ। जब समाज में वर्ण व्यवस्था व्याप्त थी। ऐसे में समाज का एक वर्ग इस वर्ण व्यवस्था से आहत था। वह किसी अन्य धर्म की आकांक्षा में था। बुद्ध ने जनसाधारण के इसी उद्देश्य को पूरा करने बौद्ध संघ बनाएं। भगवान बुद्ध, बिंबिसार के समकालीन थे। उनका पुत्र अजातशत्रु, बुद्ध को पसंद नहीं करता था। फिर भी आगे चलकर अजातशत्रु का हृदय परिवर्तन हुआ और उसने तथा कौशल नरेश प्रसेनजीत तथा प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली के साथ-साथ बुद्ध की मां यशोधरा ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया।
बुद्ध के चार आर्य सत्य
फिजिक्स में हम अक्सर सुनते हैं। इसकी खोज फलाने वैज्ञानिक ने की, उसकी खोज उसने की। लेकिन क्या हम अपने पौराणिक ग्रंथों, शास्त्रों और संहिताओं को भी खंगालते हैं?जहां हमें फिजिक्स के नियम साफ साफ दिखाई देते हैं। आज हम बात कर रहे हैं। महात्मा बुद्ध के चार आर्य सत्य की।
बुद्ध जब बोधिसत्व को प्राप्त हुए। तब उन्होंने अपना पहला प्रवचन सारनाथ में दिया। इस प्रवचन को धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। पांच शिष्यो को दिए जाने वाले उनके प्रवचनों की आभासी मुद्रा मूर्ति रूप में, आज भी वहां विराजमान है।
1-बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए जिसमें पहला था, ब्रह्मांड में सब हमेशा व्याप्त रहता है, अर्थात पदार्थ ,ऊर्जा और ऊर्जा, पदार्थ में बदलता है।
2-ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें पता चला। जीवन एक बहती नदी की तरह है अर्थात सब कुछ परिवर्तनशील है।
3-तीसरा आर्य सत्य उन्होंने कार्य कारण का नियम बताया अर्थात जैसा करेंगे वैसा भरेंगे।
असल में यही तो फिजिक्स का नियम है। जिसे हम क्रिया की प्रतिक्रिया कहते हैं। यही तो गीता का सार है।
4-अंत में चौथे आर्य सत्य के रूप में उन्होंने इन समस्त कारणों का निदान बताया।
बुद्ध ने समस्त समस्याओं का कारण लोभ, लालच, ईर्ष्या और अत्यधिक इच्छाएं जिन्हें कामनाएं भी कहा जाता है उन्हें बताया। जब मनुष्य की इच्छाएं पूरी नहीं होती। तब उसे दुख होता है। इच्छाएं अगर पूरी भी हो जाए तो दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। अत्यधिक सुख भोग कर भी मनुष्य उदासीन हो जाता है। सच तो यही है कि जब अत्यधिक सुख अथवा अत्यधिक दुख मिलता है। तब मनुष्य विरक्ति और वैराग्य की ओर अग्रसर होने लगता है।
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। जहां अत्यधिक सुख, समृद्धि, वैभव ने राजा, महाराजाओं को वैराग्य के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया। इसी श्रृंखला में हम महावीर स्वामी को कैसे भूल गए? वह भी एक राजा के परिवार से ही आते थे। बुद्ध, महावीर स्वामी, सम्राट अशोक, आधुनिक समाज में देखें तो विवेकानंद, गांधी ऐसे महापुरुष हुए। जिन्होंने साधन संपन्नता का त्याग कर एक साधु, सन्यासी, वैरागी की तरह जीवन यापन किया।
सांसारिक समस्याएं और समाधान
आज व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या अंतरराष्ट्रीय स्तर सभी की समस्याएं सांझी समस्याएं हैं। इन समस्याओं में बुद्ध की शिक्षा, समस्याओं का समाधान कर सकती हैं। समाज में व्याप्त अत्यधिक असमानता, असहिष्णुता, आतंकवाद, अस्थिरता अवसाद सभी का समाधान बुद्ध की शिक्षा में निहित है।
सतत विकास के सिद्धांत एसडीजी, जिन की प्रासंगिकता विश्व स्तर पर है वै भी बुद्ध के ही दर्शन से उत्पन्न हुई है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत सतत सधारणीय विकास, हो या संविधान में निहित आर्टिकल समानता, स्वतंत्रता, संप्रभुता सभी बुद्ध के दर्शन की ही उपज है।बुद्ध ने अपने चौथे आर्य सत्य के रूप में समस्त समस्याओं के उपचार के लिए अष्टांगिक मार्ग की अवधारणा दी। मनुष्य यदि सभी काम सम्यक दृष्टि से करें तो समाधान संभव है। इसी से निर्वाण की प्राप्ति भी हो सकती है।
बुद्ध का मध्यम मार्ग यही बताता है, ना अत्यधिक दुख अच्छा होता है, ना अत्यधिक सुख, मनुष्य को मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। इसी मध्यम मार्ग के साथ-साथ बुद्ध ने चोरी ना करना, लोभ, लालच, हिंसा, दुराचार, झूठ ना बोलना, नशाखोरी जैसे बुरे कार्यों को भी समाप्त करने की दिशा में पहल की।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण
आज जो दुनिया में यूनीपोलर और मल्टीपोलर जैसी अवधारणा विकसित हुई है। उसी ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को युद्ध के कगार पर खड़ा किया है। ध्रुवीकरण की इस राजनीति में शांति बनाए रखने के लिए बुद्ध के पंचशील के सिद्धांत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ आतंकवाद को समाप्त करने में भी यह दर्शन उपयोगी है।
साथ ही आज अवसाद, डिप्रेशन एंजायटी जैसी विकृति जो अकारण ही लोगों को काल के ग्रास में ले जा रही है। इस समस्या में भी बुद्ध का दर्शन डॉक्टर की भूमिका निभाता है। यही वह मध्यम मार्ग है। जिस पर चलकर मनुष्य अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकता है।यही नहीं समाज में व्याप्त रूढ़िवादी सोच, जातिवाद व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, कर्मकांड पर भी बुद्ध ने प्रहार किया।
जातक कथाएं
पंचतंत्र की कहानियां ,जातक कथाएं आपने भी सुनी होंगी? जातक कथाएं वह कथाएं है जो बुद्ध के पूर्व जन्म की कहानियां कहती है। यह कहानियां मात्र कहानियां नहीं, गूढ़ रहस्यों को सरल, सहज तरीके से समझाने का माध्यम है। शिक्षाप्रद इन कहानियों के माध्यम से आज अनेक समस्याओं का समाधान भी संभव है। बुद्ध का वास्तविक दर्शन जीव से जुड़ा हुआ है।
कोई भी धर्म उस समय पुष्पित और पल्लवित होता है। जब उसमें समाज के सभी वर्गों की भागीदारी के साथ-साथ बहुत से नैतिक मूल्य भी समावेशित हो। बुद्ध का दर्शन इस पर खरा उतरता था। जीवो पर दया करो सभी में एक ही आत्मा है। मनुष्य जिस प्रकार का व्यवहार दूसरों से अपेक्षा करता है, वैसा ही वह स्वयं करें, तो समस्याएं उत्पन्न ही ना हो। भारतीय दर्शन से सीख ली जाए तो ना सिर्फ व्यक्तियों के मध्य उत्पन्न हुए मनमुटाव, मतभेद समाप्त हो सकते हैं।
अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अनेक समस्याओं का समाधान संभव है। वर्तमान में जिस प्रकार से दुनिया युद्ध के मुहाने पर खड़ी है। ऐसे में बुद्ध का दर्शन समाधान सुझाता है। नास्तिक दर्शन में शांतिपूर्ण, सौहार्द्य और सहभागिता से जीवन यापन की शिक्षा दी गई है। सह -अस्तित्व की भावना के साथ साथ यह दर्शन राष्ट्र और व्यक्ति की एकता, अखंडता ,संप्रभुता और सम्मान की भावना से प्रेरित विश्व शांति में सहयोग देने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।
बुद्ध का दर्शन आज भी प्रासंगिक है। तभी भारतीय संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी बौद्ध धर्म को अपनी तर्कसंगत बुद्धि पर कसा और उसके बाद उसे ग्रहण किया।यही वह धर्म है, जो धार्मिक असमानता, शोषण और भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।
बुद्ध ने जब अपने विचार जनसाधारण में पहुंचाएं तब उन्होंने इसे बहुत ही सरल और सहज शब्दों में पाली भाषा में समझाएं ।जिससे कि जनसाधारण इसे समझ सके। यहां तक कि उन्होंने अपने धर्म को भी अंधाधुंध आंख बंद कर अनुसरण करने का भी विरोध किया। बुद्ध का दर्शन आज के लोकतांत्रिक देश की पैरवी के साथ-साथ व्यक्ति विशेष की गरिमा का सम्मान करने की दिशा में भी प्रासंगिक है। इसकी उपादेयता जितनी उस समय थी उससे कहीं आज महसूस होती है।
बुद्ध का दर्शन स्वर्ग लोक की बजाय। इह लोक पर अधिक केंद्रित था ।उन्होंने कभी भी काल्पनिक स्वर्ग की कल्पना कर लोगों को भ्रमित नहीं किया। धर्म की वास्तविक परिभाषा का ज्ञान बुद्ध ने करवाया। उनके नैतिक मूल्य कोड ऑफ कंडक्ट आज एथिक्स के सर्वोच्च मूल्य माने जाते हैं। जिनका अनुसरण कर सामान्य से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक संवेदनशील, सहनशील और सहानुभूतिपूर्ण आचरण कर सकते हैं।
यही नहीं जवाहरलाल नेहरू ने जो पंचशील के सिद्धांत अपनाएं। वे भी बौद्ध दर्शन की ही देन है।
स्त्रियों को दीक्षा
अक्सर गौतम बुद्ध पर यह आरोप लगाए जाते हैं कि वे स्त्रियों को संघ में शामिल नहीं करना चाहते थे। लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न थी। बुद्ध का बोधिसत्व यह पहचान गया था की समाज में स्त्रियों की दशा ठीक नहीं है। किंतु यदि उन्हें संघ में प्रवेश मिल गया तो बौद्ध धर्म आगे नहीं बढ़ पाएगा।
इसके पीछे उनकी कोई गलत मंशा या रूढ़िवादी सोच नहीं थी क्योंकि वे एक पुरुष थे और पुरुष होने के नाते पुरुष की रग रग से वाकिफ थे। उन्हें पता था अगर स्त्रियां संघ में सम्मिलित हो गई। तो पुरुष स्वयं पर नियंत्रण नहीं कर पाएंगे। स्त्रियों को तो नियंत्रण करना आता है। लेकिन पुरुष अक्सर स्वच्छंद स्वभाव के होते हैं। ऐसे में उनके पथभ्रष्ट होने की संभावनाएं अधिक है।
बुद्ध एक बुद्धिजीवी भी थे। उन्हें सामाजिक व्यवस्था का भी आभान था। वे अच्छी तरह से जानते थे कि अगर संघ में स्त्रियों का समावेश हुआ तो समाज का संभ्रांत वर्ग उनके पीछे पड़ जाएगा। स्त्रियां अगर चूल्हा चौका छोड़कर संघ में चली गई तो परिवार जैसी व्यवस्था विखंडित हो जाएगी। ऐसे में नए-नए धर्म पर आंच आ जाएगी। यही सोच कर गौतम बुद्ध महिलाओं को मठ में शामिल नहीं करना चाहते थे।
किंतु अपने शिष्य के अनुरोध पर उन्होंने स्त्रियों को भी मठ में आने की स्वीकृति दे दी। अब स्त्रियां भी धर्म की दीक्षा लेने लगी। बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाते हुए। किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचने का उपदेश दिया।यही नहीं उन्होंने स्वयं को कभी ईश्वर भी नहीं माना। उनका मानना था। मेरे विचारों को भी आप ऐसे ही आत्मसात मत करो। उससे पहले अपने तराजू पर तोलो और जब आपको वह अच्छा लगे। तब उसे ग्रहण करो।
बुद्धि की प्रधानता के साथ-साथ वे तर्क और तथ्यों में विश्वास करते थे। ज्ञान के द्वार सभी के लिए खोलते हुए ।उन्होंने स्त्रियों और शुद्र को भी संघ और मठ में शामिल कर लिया। इतना ही नहीं,लाइट ऑफ एशिया को पढ़ते हुए, स्वाइटजर ने गांधी के विचारों को भी बुद्ध से प्रेरित ही माना। अप्पो दीपो भव अपना दीपक स्वयं बने।