– डा. उरुक्रम शर्मा
देश की बागडोर वैसे तो एनडीए के हाथ में रहेगी, लेकिन क्या इस तरह की सत्ता की उम्मीदें थी? क्या इस तरह के सपने बिखरने का सोचा था? आखिर ऐसी कौनसी वजह रही, जिससे भाजपा अपने बूते स्पष्ट बहुमत से दूर हो गई? सत्ता के लिए कुछ भी चलेगा की थ्योरी को क्यों जनता ने नकार दिया? क्यों भाजपा कार्यकर्ता चुनाव में पूरी ताकत से नहीं लगे? ऐसी क्या मजबूरी थी, जो समूचा चुनाव पूरी तरह से मोदी के नाम पर लड़ा गया? क्यों पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं को साइड लाइन किया गया? क्यों राज्यों के कद्दावर नेताओं को बर्फ में लगाकर नया आधार तैयार करने की कोशिश की? क्यों भाजपा में सामूहिक की जगह समूचे निर्णय दो हाथों तक ही सिमट कर रहे गए? क्यों नहीं 10 साल के शासन के बाद सरकार विरोधी लहर का अंदाजा लगाया जा सका?
यह कुछ ऐसे सवाल हैं, जो हर भाजपा कार्यकर्ता और भाजपा समर्थकों के दिमाग में गूंज रहे हैं। पार्टी की उच्च स्तरीय बैठकों में इस पर मंथन होगा, लेकिन जिन कद्दावर नेताओं को पिछले 10 साल में साइड लाइन किया गया, क्या उनके स्वरों को अब भी दबाया जा सकेगा? आखिर 2014 में सरकार में आते ही भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी को दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंका गया? लगातार मध्यप्रदेश में भाजपा को जीत दिलाने वाले शिवराज सिंह चौहान सत्ता आने पर राज्य से बाहर कर दिल्ली का रास्ता दिखाया। क्यों राजस्थान में वसुंधरा राजे को साइड लाइन करके छुटभैया नेताओं की बातों को माना गया? क्यों उत्तरप्रदेश में योगी को फ्री हैंड देकर संघ कार्यकर्ताओं की अवहेलना की गई? क्यों, दूसरे दलों से नेताओं को लाकर भाजपा में भरा गया? महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों को तोडक़र खुद सत्ता में आना, कौनसी मजबूरी था? पश्चिम बंगाल में लगातार ममता बनर्जी पर हमले करना, दूसरे दलों के आकंठ भ्रष्टाचार में बैठे लोगों को भाजपा में शामिल करना जनता को नागवार लगा।
हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा को जबरदस्त झटका लगना, पार्टी बरसों तक भूल नहीं पाएगी। 2019 के चुनाव के मुकाबले भाजपा को सीधे तौर पर 64 सीटों को नुकसान हुआ है। इनमें वो सीटें भाजपा हार गई, जिनकी कल्पना तक नहीं की थी। फैजाबाद (अयोध्या) सीट हारना लोगों के गले नहीं उतर रहा है, जबकि राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा दो सीटों से 84 सीटों तक पहुंची थी। आठ बार से लगातार जीतने वाले मेनका गांधी और अमेठी से पिछली बार राहुल गांधी को हराने वाली स्मृति ईरानी तक अपनी सीट नहीं बचा पाई। टिकटों के बंटवारे में जिस तरह की घालमेल हुई है, उसने नेताओं की पूरी तरह कलई खोलकर रख दी।
विपक्ष का भाजपा सत्ता में आई तो संविधान और आरक्षण खत्म कर देगी, इसका भाजपा के नेता और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अंतिम चरण के प्रचार खत्म होने तक भी तोड़ नहीं निकाल पाए। भाजपा इस चुनाव में अति आत्म विश्वास के साथ मैदान में थी और जमीनी हकीकत जानने की कोशिश तक नहीं की। किसी नेता ने बताने की हिम्मत भी नहीं की, क्योंकि सुनवाई ही नहीं होती थी। पार्टी के बड़े नेताओं तक को केन्द्रीय नेतृत्व के पार्टी नेताओं से मिलने तक का महीनों तक समय नहीं मिल पाता था। पिछले कुछ समय से भाजपा का कर्मठ और कैडर बेस कार्यकर्ता पूरी तरह से खुद को ठगा महसूस कर रहा था। वो देख रहा था, उसका सिर्फ उपयोग किया जा रहा है। वक्त आने पर टिकट और राजनीतिक पोस्टों पर नियुक्ति तो बाहर के दलों से आए नेताओं को ही दी जा रही थी। इससे वो कटा कटा सा रहने लगा।
कार्यकर्ताओं को साफ तौर पर कहना है कि पार्टी में कुछ समय से यूज एंड थ्रो की नीति चल रही थी। पार्टी राजनीतिक दल के रूप में नहीं बल्कि कारपोरेट सेक्टर की तरह चल रही थी। जहां सिर्फ आदेश की पालना करनी होती है, सुनवाई नहीं। किसी को कुछ बोलने की इजाजत नहीं है। किसी ने जरा सा भी बोलने का काम किया तो उसे पार्टी और पद से दूर करने में हिचक नहीं। कमोबेश हिन्दी भाषी तमाम राज्यों में जिस तरह से क्षेत्रीय कद्दावर नेताओं को अलग थलग किया गया, उसको लेकर कार्यकर्ताओं व उनके समर्थकों में जबरदस्त रोष रहा। स्थानीय नेताओं व स्थानीय मुद्दों से दूरी को लोगों ने गलत तरह से लिया, जिसका परिणाम हाल ही हुए चुनाव परिणाम में साफ तौर पर देखने का मिला।
देश और राज्यों की समस्याओं को पूरी तरह से संज्ञान में नहीं लेने से भी जबरदस्त नुकसान हुआ है। पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में किसानों को राजी करने में नाकामी रही। यही कारण है कि पंजाब पूरी तरह साफ हो गया। हरियाणा में चेहरा दिखाने लायक सीटे नहीं आई। उत्तरप्रदेश ने तो दिन में ही तारे दिखा दिए। इस चुनाव परिणाम ने भाजपा को बहूत गहरे घाव दिए हैं, लेकिन अंदरखाने वो सारे नेता खुश हैं, जिन्हें अलग-थलग किया गया था। वो ये ही चाह रहे थे, सरकार तो एनडीए की बने, लेकिन इतना बहुमत ना मिले, जिससे और भी ज्यादा निरंकुशता आ जाए। हालांकि नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि तीसरी बार एनडीए की सरकार बन रही है। भाजपा अकेले को जितनी सीटों पर जीत हासिल हुई है, उतनी तो सारे दल साथ रहकर भी नहीं ला सके। हां, सुकुन देने और कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए यह सही भी है। चुनाव परिणाम भाजपा की दशा और दिशा बदलने की शुरूआत के रूप एक संकेत है, जिसका स्वरूप आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा।
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