डा.उरुक्रम शर्मा
भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार का सामना क्यों करना पड़ा? इस पर मंथन शुरू हुआ और धधकती चिंगारी ज्वाला में बदलने की तैयारी भी शुरू हो गई। दिल्ली से आए नेताओं के सामने सभी जिम्मेदार नेताओं और पदाधिकारियों ने अपनी अपनी बात कही। इसके पीछे कई वो तर्क थे, जिन्हेें चुनाव पहले नेताओं ने अति आत्मविश्वास के चलते जिंदा मख्खी की तरह निगल लिया था और कार्यकर्ता हक्का बक्का रह गया था। मोटा मोटी देखें तो सबने आपसी कलह, गुटबाजी, कार्यकर्ताओं का पूरी तरह नहीं लगना, टिकट वितरण में मनमानी, पार्टी के बड़े नेताओं का अहंकार और अति आत्मविश्वास, नेताओं का अंदरखाने पार्टी प्रत्याशी हराने की प्लानिंग करना, बड़े प्रभावशाली नेताओं को चुनाव से दूर रखकर उनकी अवहेलना करना वो अहम कारण सामने आएं हैं, जिनके जरिए दो दिन दिन के मंथन में बातें सामने आई।
वैसे तो इतिहास गवाह है, इस तरह के मंथन सिर्फ लीपापोती का एक माध्यम हैं, ताकि नेताओं और पदाधिकारियों का गुबार निकल सके। होता वहीं है और यही होता आया है कि जो दिल्ली के प्रभावशाली नेता चाहेंगे, वही होगा। कहने को भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र बहुत मजबूत है, लेकिन वो दिखता नहीं। कार्यकर्ता सीधे तौर पर अपनी व्यथा बड़े नेताओं को बता नहीं सकते हैं, वजह साफ है, उन्हें अपाइंटमेंट तक नहीं दिया जाता है। अजीब स्थिति है कि अपने ही नेताओं से मिलने से मिलने के लिए कार्यकर्ता को समय नहीं दिया जाता है। कहां है, फिर लोकतंत्र? कार्यकर्ता अपना गुस्सा अपने ही लोगों में निकाल कर रह जाता है और जब वक्त आता है तो सबक सिखा देता है। जैसा 2024 के लोकसभा चुनाव में हुआ। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 25 में से 25 सीटें मिली थी, लेकिन 2024 में वो 14 पर सिमट कर रह गई। आखिर वो 11 सीटें कैसे हार गए, इस हार की जिम्मेदारी अभी तक भाजपा के किसी नेता ने नहीं ली। सिर्फ जमीनी नेता किरोड़ीलाल मीणा ने दौसा सीट नहीं जितवा पाने के कारण नैतिक जिम्मेदारी ली। उन्होंने मंत्री को मिलने वाली तमाम सरकारी सुविधाएं लौटा दी और दफ्तर जाकर काम करना बंद कर दिया।
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अभी तक पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी ने हार की नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली है। वे तो खुद ही चित्तौडग़ढ़ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे थे, अपनी सीट बचाने के चक्कर में वो दूसरी सीटों पर धुआंधार प्रचार करने तक नहीं जा सके। चूरू सीट से लगातार 10 साल से सांसद रहे राहुल कस्वां का टिकट नेताओं की आपसी लड़ाई के कारण काटा गया। जिन नेताओं के कारण उनकी बलि दी गई, वो भी चूरू से भाजपा को जिता नहीं सके। कस्वां कांग्रेस से टिकट लेकर भारी मतों से ना केवल जीते, बल्कि भाजपा को आईना भी दिखा दिया। भाजपा ने अपने कैडर बैस कार्यकर्ताओं को यूज एंड थ्रो पालिसी की तरह व्यवहार किया। बांसवाडा में कांग्रेस से महेन्द्र जीत सिंह मालवीय को शामिल करना और मूल कार्यकर्ता की जगह उन्हें मैदान में उतारा गया। भाजपा के तमाम कार्यकर्ताओं ने चुनाव से दूरी बनाकर पार्टी के गलत निर्णय का सबक सिखा दिया। एक साल पहले पहले बनी पार्टी बाप के राजकुमार ने शानदार जीत अर्जित की। नागौर में भाजपा ने कांग्रेस से आई ज्योति मिर्धा पर ही दांव खेला, जबकि वो विधानसभा चुनाव हार चुकी थी। जाट वोटों की आपसी नाराजगी और पारिवारिक कलह ने नागौर की सीट भी हाथ से निकाल दी। दौसा में बस्सी के पूर्व विधायक कन्हैयालाल मीणा को चुनाव मैदान में उतारा गया, जबकि वो बस्सी के बाहर कोई प्रभाव नहीं रखते हैं। वहां भी टिकट चयन में उस क्षेत्र के दमदार नेताओं को साइड लाइन किया गया। नेताओं की आपसी गुटबाजी का परिणाम यह रहा कि पूरा शेखावटी व पूर्वी राजस्थान हाथ से सरक गया।
भरतरपुर, टोंक- सवाई माधोपुर, करोली-धौलपुर, दौसा, सीकर, चूरू, झुंझनूं आदि सीटों से 10 साल बाद लोगों ने भाजपा को बाय बाय कर दिया। सीकर सीट इंडिया ब्लाक के पास गई, उसके बावजूद भाजपा सीकर को नहीं बचा सकी। झुंझुनूं के प्रत्याशी शुभकरण चौधरी तो सीधे तौर पर अग्निवीर योजना को हार के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। चूरू से कांग्रेस से जीते हुए प्रत्याशी राहुल कस्वां (जो 10 साल से भाजपा के सांसद रहे) तो सीधे तौर पर राजेन्द्र राठौड़ को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा की दुर्दशा के लिए सीधे तौर पर वो जिम्मेदार हैं, जिनके कारण पूरा शेखावटी भाजपा के हाथ से निकल गया।
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कार्यकर्ताओं का सीधे तौर पर कहना है कि प्रदेश भाजपा में ऊपरी स्तर पर चल रही जबरदस्त गुटबाजी ने मोदी की गारंटी और सपनों को चकनाचूर कर दिया। केन्द्रीय नेताओं ने भी प्रदेश में चल रही गतिविधियों को दरकिनार किया और उन्हीं लोगों पर भरोसा किए रखा, जिन्होंने पांच साल के गहलोत शासन के दौरान भाजपा को हर मुकाम पर निराश किया। एक तबका ऐसा भी है, जिसने सीधे तौर पर कहा कि राजस्थान की कद्दावर नेता वसुंधरा राजे का जिस तरह से पिछले पांच साल से प्रदेश भाजपा ने अपमान किया है, उनकी राजनीतिक हत्या करने की असफल साजिश रची है, इसे जनता और कार्यकर्ताओं ने सबक सिखाने के हिसाब से देखा, और किया भी। वसुंधरा राजे झालावाड़ से बाहर किसी जगह प्रचार के लिए नहीं गई। केन्द्रीय नेताओं की आम सभाओं से भी वसुंधरा का दूर रखा गया। राजस्थान की नेताओं के साथ इस तरह की बदसलूकी को बड़ी संख्या में उनके समर्थकों ने दिल से ले लिया।
बहरहाल पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व का इतना लचर सिस्टम इसी तरह चलता रहा है तो आने वाले दिनों में प्रतिपक्ष का सामना करना भाजपा के बस में नहीं रहेगा। कांग्रेस इस जीत से जबरदस्त उत्साहित है और पांच साल प्रदेश सरकार को सदन और सडक़ तक चैन से नहीं बैठने देने वाली है। विधानसभा का बजट सत्र भाजपा के लिए एक बड़ी परीक्षा से गुजरने के समान होगा। सरकार के बचाव के लिए कोई इतना अनुभवी नेता नहीं है कि जो विपक्ष का डटकर मुकाबला कर सके। कुछ हैं वो लगता नहीं है कि खेला कर पाएंगे।