डा. उरुक्रम शर्मा
आरक्षण का विकल्प आखिर क्या है? कब तक जातिगत आधार पर आरक्षण देकर देश को जातियों में बांटने का काम चलता रहेगा? कब तक भारत के प्रत्येक नागरिक को भारतीय या हिन्दुस्तानी नहीं कहा जाएगा? जापान में जाओ तो हर व्यक्ति खुद को जापानी कहता है। अमेरिका हो या ब्रिटेन वहां भी ऐसा ही है। वो वहां अपनी जाति नहीं बताते हैं। देश को सबसे पहले रखते हुए उस देश का होने का गर्व करते हैं। हिन्दुस्तान में राजनीतिक दलों ने आरक्षण को वोट हथियाने का सबसे सरल और मजबूत रास्ता अख्तियार कर लिया। कोई कहता है कि फलां दल सत्ता में आ गया तो आरक्षण खत्म हो जाएगा, कोई कहता है कि आंबेडकर जी खुद भी वापस आ जाएं तो देश से आरक्षण खत्म नहीं हो सकता है। यानी आरक्षण चुनाव जीतने और हारने का धारधार हथियार बन चुका है। कोई भी राजनीतिक दल हो या बुद्धिजीवी इसके विकल्प के लिए चर्चा करने से ही कतराते हैं। देश में आरक्षण का विकल्प क्या ?
मार्निंग न्यूज इंडिया ने इस चर्चा को शुरू किया है। पक्ष और विपक्ष के विभिन्न पहलुओं पर शृंखलाबद्ध पेश किया जाएगा। पहला विषय यह है कि क्या आरक्षण का देश में विकल्प खोजा जा सकता है? यदि हां तो किस तरह से? आज विकल्प पर चर्चा शुरू की जाएगी तो परिणाम 20 साल बाद देखने को मिलेंगे। इसके लिए देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा? आरक्षण देना है तो शिक्षा में दिया जाए या नहीं? देश की शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से निशुल्क करके हर काबिल और योग्य युवाओं की फौज तैयार की जाए। जब काबिल युवा तैयार होगा तो उसके लिए तमाम प्रतियोगी परीक्षाएं पास करना आसान होगा। जातिगत आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। कोई राज्य वोटों की खातिर मजहब के आधार पर आरक्षण की ना केवल बात करते हैं, बल्कि सत्ता में आने पर लागू भी कर देते हैं। जबकि संविधान में मजहब के आधार पर कहीं भी आरक्षण का प्रावधान होने का विषय विशेषज्ञ बताते नहीं है।
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वर्तमान परिस्थितियों में जैसा कि जिक्र किया गया है कि आरक्षण चुनाव जीतने का हथियार बन चुका है, इसका ताजा उदाहरण हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। भाजपा ने इस बार 400 पार का नारा दिया। भाजपा के कुछ नेताओं ने ही सार्वजनिक सभाओं में खुलकर कहा कि 400 का आंकड़ा पार होगा तभी संविधान में संशोधन संभव है। विपक्ष को इतना खतरनाक हथियार हाथ लग गया कि भाजपा को देश में अपने बूते पर सरकार बनाने के सपने को बिखेर कर रख दिया। पिछले बार के मुकाबले 63 सीटों का सीधे तौर पर नुकसान हुआ। विपक्ष ने हर सभा में संविधान की प्रति लहरा कर दिखाया कि भाजपा गठबंधन जीत गया तो आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा, संविधान खत्म कर दिया जाएगा। आरक्षण पा रही जातियों कें दिमाग में यह पूरी तरह से फिट बैठ गया। उन्होंने भाजपा से दूरी बना ली और अच्छा खासा नुकसान भाजपा को भुगतना पड़ा। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में भाजपा की सीटें घट गई और भाजपा केन्द्र में अपने बूते सरकार नहीं बना सकी। इससे पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि आरक्षण चुनाव हराने और जीतने का ब्रह्मोस है। ताजा हालात पर नजर डालें तो आरक्षण का विकल्प शिक्षा को बनाया जाए तो क्या यह संभव है?
देश की कोई भी सरकार आई हो, उन्होंने कभी शिक्षा को उतना महत्व ही नहीं दिया। आजादी के बाद से देश की सरकारों ने शिक्षा व्यवस्था को अपने अपने हिसाब से बदलने की कोशिश की, मसलन काबिलों की फौज तैयार होने के बजाय ग्रेज्युट बेरोजगारों की सेना खड़ी हो गई। जिसमें हर नौजवान कतार में खड़ा हो गया। शिक्षा पर कितना सरकार का फोकस रहता है, उसका अंदाजा इस पर सालाना किए जाने वाले खर्चों से पता चल जाता है। केन्द्र ने शिक्षा पर 85 हजार करोड़ रुपए से अधिक का प्रावधान किया, जो कि जीडीपी का मात्र 2.7 प्रतिशत है। यह आंकड़ा ही सचाईर् बताने के लिए पर्याप्त है। इससे उलट नार्वे एक ऐसा देश है, जिसका फोकस शिक्षा पर दुनिया में सबसे ज्यादा है। वो अपनी जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करता है। उसकी जनसंख्या भी 2022 के अनुसार 5.47 मिलियन ही है। जबकि भारत की जनसंख्या 140 करोड़ को पार कर चुकी है। फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, अमेरिका, रूस जापान आदि देशों में भी शिक्षा पर काफी फोकस है। शिक्षा पर खर्च की दृष्टि से देखें तो भारत 136वें स्थान पर है। होमवर्क कराने और पढ़ाई के लिए बच्चों को समय देने के मामले में भारतीय दुनिया में सबसे आगे हैं। वे हर सप्ताह 12 घंटे इस पर बच्चों के साथ बिताते हैं। जबकि पढ़ाई पर खर्च करने के मामले में हांगकांग दुनिया में पहले पायदान पर है।
विषय विशेषज्ञों का मानना है कि शिक्षा, आरक्षण को बहुत बड़ा विकल्प बन सकता है। सरकार को चाहिए कि हर किसी के लिए शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। कौशल आधारित शिक्षा को बढ़ाया जाए। शिक्षा को पूरी तरह से निशुल्क करके योग्यजनों की फौज खड़ी जाए। जहां नौकरी की उन्हें नहीं बल्कि नौकरी को उनकी जरूरत हो। सरकार हो या प्राइवेट सेक्टर खुद काबिल लोगों को खोजते हुए नियुक्ति पत्र लेकर उनके घर पहुंचे। उस समय वेतन का निर्धारण भी व्यक्ति खुद कर सकेगा ना ही नियोक्ता। बहरहाल यह एक ऐसा बहस का विषय है, जिस पर चर्चा करने से भी राजनीतिक दल कतराएंगे। उनके लिए यह दिन में तारे उगाने जैसी समस्या रहेगा।