प्रो. डॉ. राजीव सक्सेना
पुरानी वर्जनाओं व वकियात्रुसी विचारों तत्वा तानाचाही को वोड़ती व ग्रामीण परिवेश तथा गांव कस्बों को सजीव करती थी प्रेमचन्द (Munshi Premchand) जी की कहानियां व उपन्यास। प्रेमचन्द जी की, 8 अक्टुबर, 2024 को 88वीं पुण्यतिथि हैं। इस अवसर पर प्रो. डॉ. राजीव सक्सेना, (Professor Rajiv Saxena) जो कि वर्तमान में स्वास्थ्य कल्याण होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज एवं रिसर्च सेन्टर में वरिष्ठ आचार्य व होम्योपैथिक चिकित्सक है तथा वरिष्ठ कवि व साहित्यकार है, उन्होंने अपने विचार आदर्णीय प्रेमचन्द जी के बारे में विस्तार से साझा किये।
मुंशी प्रेमचंद जी प्रेमचन्द (Munshi Premchand) जी का जन्म 31 जुलाई, 1880 को लमही गांव (वाराणसी-उत्तर प्रदेश) में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का श्री अजायबराय तथा माता का श्रीमति आनन्दी देवी था। प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। उनकी मृत्यु 8 अक्टूबर, 1938 को 88 वर्ष की अल्पायु में “जलोदर” रोग द्वारा हुई ।
कहानियों के मील का पत्थर भीष्म पितामह, पुरोधा, महा झूमर, सुमेरू पर्वत, जामवन्त, कायस्थ-कुल गौरव रत्न, हिन्दी व उर्दू भाषा के शेक्सपीयर व जन्मजात प्रतिभा युक्त मुंशी प्रेमचन्द जी, जो कि महानतम कहानीकार व उपन्यास सम्राट तथा एक महाकवि थे। सीधी सादी गंभीर बेलोस बेमुरव्वत व बेमोहब्बत, प्रभावी शक्ल के मालिक जिनका नाम धनपत राय भी था जो कि बिल्कुल गंवई, कस्बाई, भुच्च शक्ल व सांवले रंग के मालिक जो सामान्यत बंद गाढ़े का कुर्ता पजामा तथा चमरौधीं जूता पहनते थे जो चर्र-चर्र की आवाज करते थे, एक अलग ही शख्सियत, व्यक्तित्व था जो कि लोगों पर आसानी से हावी हो जाता था। मुंशी जी 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में जन्मे थे। परमादरणीय व अति सम्माननीय मुंशी जी की लेखनी हिन्दी व उर्दु दोनों भाषाओं में लाजवाब थी, त्वरित व समान चलती थी व आज भी एक वैश्विक व अन्तराष्ट्रीय पहचान बनी हुई है। प्रेमचन्द जी (Munshi Premchand) ने समकालिन व सम-सामयिक व यथार्थ परख जमीनी दुनिया से जुड़े हुए विषयों पर लगभग 300 से ज्यादा कहानियाँ लिखी व 15 के आसपास उपन्यास, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें व तीन नाटक लिखें तथा सैंकडो हजारों पन्नों के लेख संपादकीय, पत्रकारिता लेखन, भूमिका व भाषण लेखन साथ ही साथ काफी सारी रचनाएं व पत्र आदि लिखे, जो कि अपने आप में बेमिसाल तथा बेजोड़ थे। उनकी मुख्य कहानियों में ठाकुर का कुआ, पूस की रात, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, कफन, बड़े भाई साहब, नशा, बूढी काकी, शतरंज के खिलाड़ी, नमक का दरोगा, ईदगाह तथा मंत्र आदि आदि व उपन्यास, रंग भूमि, गोदान, गबन, सेवासदन, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि आदि व आखरी अधूरा लिखित उपन्यास “मंगलसूत्र” था। ये बात आज भी 100 फीसदी सही है कि भारत की अनुमानतः 76 प्रतिशत आबादी छोटे-छोटे गाँव, कस्बों ढाणियों में बसती विचरती है, आदरणीय प्रेमचन्द जी ने इन्हीं सब पर अपना पूरा साहित्य उडेला।
आज उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी (Munshi Premchand) की 88वीं पुण्यतिथि है। प्रेमचन्द जी की रचनाएं आज भी कालजयी व प्रासांगिक है। उन्हें हिन्दी का शेक्सपीयर यूही नही कहा जाता है। उनकी प्रत्येक रचना, कहानी व उपन्यास हमेशा एक परम्परा व काली सच्चाई के इर्द गिर्द घूमते हैं। उनका असली नाम धनपत राय था व उन्होंने 1901 में उपन्यास लिखना शुरू किया तथा कहानियां लगभग 1907 से लिखना शुरू की। उनकी कहानियों व उपन्यासों में जमकर व तबीयत से लोकोक्तियों, कहावतों, मुहावरों तथा गंवई शब्दों व भाषा का उपयोग होता था।
1910 में स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान उनकी कहानी “सोजे वतन” जब्त कर ली गई तथा उसकी अनेकों प्रतियां फाड़ दी व जला दी गई। उस समय अंग्रेजों के शासन काल में जब लोग कानपुर से प्रसारित होने वाले अखबार में “रफ्तार-ऐ-जमाना” जैसे कॉलम में वो लिखा करते थे व लोग उसे पढ़कर उनकी सराहना करते थे। अतः वो एक अच्छे पत्रकार व कवि भी थे। उर्दू भाषा में वो नवाबराय के नाम से लिखते थे। उन्होनें हिन्दी कहानियों, उपन्यास, रचनाओं व हिन्दी साहित्य को नये विविधा विविध बहु आयाम दिये। 1923 में उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना की व 1930 में “हंस पत्रिका” का प्रकाशन शुरू किया। साथ ही साथ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन भी किया, उनमें प्रमुखतः हंस, जागरण, मर्यादा तथा माधुरी जैसी पत्रिकाएं भी थी।
लगभग 300 से ज्यादा लिखी कहानियों में आम आदमी की लिज लिजी जिन्दगी, गरीबी अमीरी व उनकी चुभन, घुटन, प्रतिशोध, कसक, अंधविश्वास, दंभ व घमंड तथा रूढिवादी परंपराओं पर भरपूर प्रहार किया व हरेक जन व पाठकों को सोचने पर मजबूर किया। साथ ही साथ मानवीय मूल्यों को भी सहेज कर रखा जो उनकी कहानियों में स्पष्ट परिलक्षित व प्रभावी होते दिखते है। 1910 की घटना के बाद उनके परम मित्र दया नारायण निगम जो कि “जमाना” अखबार के संपादक थे, उन्होंने, उन्हें प्रेमचन्द नाम से लिखने की सलाह दी तब उन्होंने नवाबराय नाम के बजाय प्रेमचन्द नाम से लिखना शुरू किया।
20वीं सदी के भारत में 1935 तक, उस दौरान जातिवाद, छुआछुत, संकीर्णता की भावना, साम्प्रादायिक संकीर्णता, ऊँच-नीच का भेदभाव, गरीबों मजदूरों व श्रमिको का शोषण तो चलता ही था तथा इन सबसे अलग व विशेषकर महिलाओं को हेय व हीनदृष्टि से देखना अपने सर्वोच्चतम शिखर पर था। उस समय अंग्रेजों व फिरंगियों के राज में अंग्रेज लोग यही सोचते थे कि साहित्य लिखना, समझना व पढ़ना सिर्फ अंग्रेजों को ही आता है या उन्हीं का ये सर्वसिद्ध अधिकार है। इस विषम काल में एक आवाज व लेखनी प्रेमचन्द जी के रूप में ऐसी निकली, जिसकी गूंज आजतक गूंज रही है, लिखी व बोली जिन्होंने पूरे अंग्रेजी राज के साहित्यकारों व लेखकों को हिन्दी में अपनी कहानियां व उपन्यास लिखकर संपूर्ण टक्कर दी व उन्हें सोचने, विचारने पर मजबूर किया।
“पंच परमेश्वर” कहानी में जुम्मन शेख व अलगू चौधरी के माध्यम से सत्य अंहिसा व इंसाफ की जीत को दिखाया ना कि दोस्ती के पक्षपात को। नाटक “कर्बला’ में हिन्दू मुस्लिम शक्ति व एकता का संदेश दिया। प्रेमचन्द जी (Munshi Premchand) ने “निर्मला” उपन्यास में विधवा विवाह का समर्थन किया तो उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारा तथा स्वयं का विवाह शिवरानी देवी (जो कि स्वयं एक बाल विधवा थी।) से करके व्यवहार में उसे सिद्ध व लागू किया।
उस काल में उन्होंने सम सामयिक विषयों पर व सारी प्रचलित समस्याओं व मान्यताओं को सामने रखकर लिखा। “सेवा सदन” (बाजार-ए-हुस्न), गबन, निर्मला, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, रंगभूमि जैसे अनेकों उपन्यास लिखे, जिनकी आज भी कोई काट नहीं है। “गोदान” उपन्यास तो पूरे ग्रामीण जीवन व परिवेश तथा रूढिवादी प्राचीन परंपराओं को दर्शाता, दिखाता है। उन्होंने सामाजिक कुरूतियों, अंधविश्वास व ग्रामीण समस्याओं से निकलकर लोगों को अपनी लेखनी के माध्यम से बताया, समझाया व लोहा मनवाया। प्रेमचन्द जी संभवतः सदी के प्रथम ऐसे रचनाकार व साहित्यकार थे, जिन्होंने उपन्यास, कहानी व कथा लेखन को कपोल-कल्पित कल्पनाओं तथा कल्पनालोक के प्रभाव से निकलकर व लोगों को निकालकर आमजनों को वास्तविकता व जमीनी हकीकतों व विशुद्ध यथार्थ से अवगत करवाया।
उन्होंने सरल, सहज व सामान्य, जन साधारण वेशभूषा का उपयोग किया व उन्हें अपने प्रयोग में लाये। उपन्यास के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान को देखते हुए, बंगाल के योग्य, प्रख्यात व लब्ध प्रतिष्ठित उपन्यासकार शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें “उपन्यास-सम्राट” कहकर संबोधित किया। कहानी “मंत्र” ये दर्शाती है कि कभी भी अपने चिकित्सकीय पेशे व पैसे का घमंड नहीं करें हो सकता है आपको भी कभी गरीब “भगत” जैसे आदमी से मदद लेनी पड़े।
1930 के आस पास उनका गांधीवाद से मोहभंग हो गया। “गोदान” इसका सशक्त उदाहरण है इसमें किसान के शोषण, गरीबी तथा उसकी दुर्दशा का ऐसा भयावह चित्रण किया है कि अंत में किसान पात्र “होरी” की मृत्यु ने पाठकों के अन्र्तमन को अंदर तक झकझोर दिया। कहानी “ईदगाह” के माध्यम से प्रेमचन्द जी ने यह संदेश दिया कि गरीबी बच्चों को उम्र से पूर्व ही बड़ा बना देती है।
असल में व अंत में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रेमचन्द जी (Munshi Premchand) कहानी, कविता, पत्रकारिता, संपादन व लेखन क्षेत्र तथा उपन्यास लिखने के संबंध में वे साहित्य का हिमालय व सुमेरू पर्वत थे जिनकी समस्त रचनाएं कालजयी है व वे आज भी बेजोड़ है, चंद पन्नों व पंक्तियों में उन्हें व उनके साहित्य को पूर्णरूपेण समेटना मुश्किल ही नही नामुमकिन है। नकी मृत्यु 8 अक्टुबर, 1936 को 56 वर्ष की अल्प आयु में “जलोदर” रोग के द्वारा हुई। वे हमेशा आडम्बर व दिखावे से दूर रहते थे तथा अपना काम खुद करना पसन्द करते थे, अगर वे 35 40 वर्ष और जीते तो एसे महाकाव्य, उपन्यास लिख जाते जिनकी कल्पना करना, काफी अतीत से परे व कठिन है। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें सहस्त्र कोटि नमन।
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