डॉ उरुक्रम शर्मा
संयम कहां गया। कुछ सालों से तो खत्म होता ही नजर आ रहा है। हर कोई उग्र हो गया। सहने की क्षमता खत्म हो गई। हार का मतलब मृत्यु समझ लिया। हार एक सबक है। कैसे भूलते जा रहे हैं। एक परीक्षा का रिजल्ट अनुकूल नहीं रहा तो आत्महत्या। मनचाहा नहीं मिला तो आत्महत्या। टीचर ने डांट दिया तो आत्महत्या।
हद हो गई……
हद है आज का युवा, इतना कमजोर कैसे हो गया। क्या उसमें संस्कारों का प्रवाह इतना कमजोर है कि वो झटपट सिर्फ आत्महत्या के लिए बना है। वह विवेकशून्य कैसे होता जा रहा है। कैसे वो भूल रहा है कि उसके सहारे मां-बाप खुशहाल जिन्दगी के सपने बुन रहे हैं। कैसे भूल रहा है कि उसके नहीं रहने के बाद माता-पिता और भाई-बहनों का क्या हाल होगा। कैसे भूल रहा है कि उसे खुशी देने के लिए मां-बाप ने अपनी सारी कटौती की है। पिता बस से या पैदल ऑफिस जाना मंजूर कर लेता है लेकिन बच्चों को स्कूल, कॉलेज कोचिंग के लिए टू-व्हीलर लेकर देता है। उसकी किस्तें भी नहीं चुकती और बच्चे ताउम्र का असहनीय दर्द दे जाते हैं। उसके दोस्तों में उसका स्टेट्स कमजोर नजर नहीं आए, इसके लिए ब्रांडेड शूज और कपड़े पहनाता है। मां दो साड़ी में साल निकाल देती है। पिता रफू कराकर अपना काम चला लेता है। बच्चों की तरक्की के आगे वह इन अभावों का भूल जाता है। क्या -क्या नहीं करते माता-पिता। बच्चों को बेहतरीन शिक्षा के लिए कहीं से भी पैसे का जुगाड़ करते हैं और भारी भरकम फीस भरते हैं। एक विश्वास के साथ और उम्मीद के सहारे सुखद भविष्य की रोज तस्वीर देखते हैं।
क्या यह बदलते परिदृश्य का नतीजा है…..
अब तो पहले की तरह माता-पिता का बच्चों में भय नहीं वरन् मित्रतापूर्ण व्यवहार करते हैं। पहले माता-पिता डांटते, फटकारते और पीटने में कसर नहीं छोड़ते थे, लेकिन बच्चे कभी उफ तक नहीं करते थे। आत्महत्या जैसा खौफनाक शब्द उनके दिमाग तक में नहीं आता था। वजह साफ थी। संयुक्त परिवार में पलकर बढ़े होने वाले बच्चों में संस्कार, संयम, सहनशीलता, आदर, सामंजस्य, समायोजन स्वत: ही आ जाते थे। परिदृश्य बदला है। आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए सिर्फ बच्चे ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि माता-पिता भी कम दोषी नहीं है।
पैसा नहीं हर मर्ज का इलाज…..
भागमभाग की जिन्दगीं और बच्चों की सारी ख्वाहिशें पूरी करने के चक्कर में माता-पिता मशीन बन चुके हैं। वे पैसे से सब खुशी देने में लगे हैं। उनके पास बच्चों से सुकून से बात करने का वक्त भी नहींं है। बच्चे की पढ़ाई कैसी चल रही है। दिन भर क्या किया। बच्चों के दोस्त कौन है। बच्चों का क्या कोई परेशानी है। आजकल मां-बाप पूछते तक नहीं है। सच में पैसा हर मर्ज का इलाज नहीं है।
सोचें,समझें मोटिवेट करें…..
प्यार के बोल, बच्चों के साथ समय बिताना उससे भी ज्यादा अनमोल है। बच्चों को प्रेरणास्पद बातों की जरूरत है। बच्चों में हीन भावना नहीं पैदा हो, इसके लिए अनावश्यक रूप से नंबरों की दौड़ में उसे दौड़ाकर फालतू की प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए। बच्चा जो कर सकता है। अपनी इच्छा से उसे करने के लिए मोटिवट करें। उस पर अपनी इच्छाएं थोपे नहीं। उसकी इच्छाएं पूरी करने में उसका भरपूर साथ दें। अमुमन जब इच्छाएं थोपी जाती हैं और बच्चों से उनकी क्षमता से अधिक की उम्मीदें की जाती हैं तो बच्चे उन्हें पूरा नहीं कर पाने पर अंदर तक टूट जाते हैं। अवसाद में चले जाते हैं। अब देखना हम सबको है। बच्चे सोचें, समझें और माता-पिता बच्चों को महसूस करते हुए उनके साथ क्वालिटी टाइम बिताए।