महिला क्या चाहती है? क्या वह चाहती है कि उसे देवी की तरह पूजा जाए ,सेनगुट्टुवन जैसा कोई राजा मिले जो कणगी पूजा करें? या वह चाहती है कि उसे उसका पति पैर की जूती समझे? महिला सर्वप्रथम मनुष्य है और वह चाहती है कि उसे मनुष्य रूप में ही देखा जाए। उसे ईश्वर नहीं इंसान बनना है। उसे पैर की जूती नहीं, पति की अर्धांगिनी बनना है। नर की अर्धांगिनी नारी तू नारायणी। वही सृष्टि की संगवारी है। जो कभी नहीं हारी है। हां कभी-कभी वह थोड़ी खारी है पर इसमें भी पुरुष की ही जिम्मेदारी है। उड़ान पर ब्रेक लगाएंगे तो कभी ना कभी ब्रेक फेल होंगे ही। भारत के मूल संविधान में मौलिक कर्तव्य नहीं थे। इन्हें बाद में स्वर्ण सिंह कमेटी की सिफारिश पर जोड़े गए। किंतु महिला के संविधान में तो पैदा होते ही कर्तव्य ही कर्तव्य निहित होते हैं। वास्तविक अधिकारों तक तो बहुत कम महिलाएं ही पहुंच पाती है। संविधान की प्रस्तावना से लेकर मूल अधिकार ,मूल कर्तव्य, नीति निर्देशक तत्व अधिकांश भागों और उनमें निहित अनुच्छेदों में महिलाओं को समान और सशक्त बनाने के प्रावधान निहित है। किंतु जमीनी धरातल पर क्या यह क्रियान्वित हो पाए? कितनी महिलाएं होंगी जो मौलिक अधिकारों का उपयोग करती होंगी ? अथवा उल्लंघन होने पर न्यायालय का दरवाजा खटखटाती होंगी अथवा न्यायालय के दरवाजे तक पहुंचने के बाद भी न्याय की पहुंच तक पहुंचती होंगी? आज आवश्यकता है नीति निर्देशक तत्व को क्रियान्वित करने की । आर्थिक सामाजिक राजनीतिक न्याय की दिशा में तथा बढ़ती असमानता की खाई को पाटने के लिए भी नीति निर्देशक तत्वों का क्रियान्वयन करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। आजादी के अमृत महोत्सव अमृत के इस घट को कौन महिलाओं से छीन रहा है?
महिला भागीदारी।
संविधान निर्माता अंबेडकर ने कहा था। किसी भी समुदाय की प्रगति महिलाओं की प्रगति से आंकी जाती है। उनकी दूरदर्शिता और समझदारी का ही परिणाम है कि पितृसत्तात्मक सोच वाले देश में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार मिला। जिसने नारी सशक्तिकरण में अपनी महती भूमिका निभाई । वैसे हम सिंधु घाटी से लेकर वैदिक काल तक का सफर देखे तो उस समय भी महिलाओं की दशा इतनी दयनीय नहीं थी । जितनी आज है। सभा ,समिति विद्त में महिलाएं भाग लेती थी। उस समय की महान विदुषी लोपामुद्रा ,गार्गी, मैत्रेय को कौन नहीं जानता? सिंगरौली के उत्खनन में महिला कंकालों के साथ मिले हथियार भी इस बात के साक्षी है कि महिलाएं शुरू से वीरांगना रही है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता की अवधारणा वैदिक युग से ही आई है। आज भी जब हम अपने प्राचीन मंदिरों पर उकेरी गई देवी देवताओं की मूर्तियों को देखे तो पाएंगे कि वे घुंघट या पर्दे में नहीं है। फिर प्रश्न यह उठता है कि यह पर्दा प्रथा कहां से आई? क्या यह कुरीति नहीं? मध्यकालीन युग में अरब आक्रमणकारी और सामंतवादी व्यवस्था की परछाई से सती प्रथा, पर्दा प्रथा प्रचलित हुई। पुनर्विवाह पर रोक लगी। कुरीतियों की भरमार होनी शुरू हुई। फिर भी रजिया सुल्तान जैसी मुस्लिम महिला दिल्ली की सुल्तान बनी,रानी दुर्गावती और मीराबाई जैसी महिलाएं सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करती हुई नजर आई। आधुनिक काल में भी स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक आसमान में महिलाओं ने संघर्ष कर अपना परचम लहराया । जिसका उदाहरण सरोजिनी नायडू, भीकाजी कामा, कस्तूरबा गांधी से लेकर कल्पना चावला जैसे उदाहरणों से भरा है। फिर प्रश्न उठता है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हमारी स्थिति महिलाओं को लेकर क्यों नहीं बदली?
भेदभाव की शुरुआत।
परिवार ही वह पहली कड़ी है। जहां से भेदभाव की शुरुआत होती है। इसका सीधा प्रभाव लिंगानुपात पर पड़ता है । विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में भी ग्लोबल जेंडर इंडेक्स में भारत की स्थिति लगातार गिरती जा रही है। यूएनडीपी के एक सर्वे, जेंडर सोशल नॉर्म्स इंडेक्स में बताया गया है कि 10 में से 9 लोग अभी भी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि लगभग 28% पति द्वारा प्रताड़ित महिलाएं इस कार्य को जायज ठहराती हैं। मतलब आधी आबादी में भी एक हिस्सा ऐसा है जो पितृसत्तात्मक सोच और रूढ़िवादी विचारधारा का उत्प्रेरक है। इस उत्प्रेरक का ही परिणाम है कि आजकल अस्पतालों में भी बच्चा चोरी की अनोखी घटनाएं देखने को मिल रही है। चोरी तो सभी तरह की बुरी है। किंतु कुछ लोग बच्चा चोरी में पुत्रों को प्राथमिकता दे रहे हैं। वही देश के कुछ प्रांत ऐसे भी हैं। जहां लड़कियों का इतना अकाल पड़ गया है कि उनकी खरीद-फरोख्त की जा रही है। बहू सभी को चाहिए, लेकिन बेटी किसी को भी नहीं। हम क्यों नहीं समझते? जल है तो कल है बेटी है तो बहू है। जब बेटी ही नहीं बचेगी तो बहू कहां से मिलेगी?
सोच में सुधार।
स्वयं के जी आई टैग को छोड़कर पति का जी आई टैग बन जाती है। अफसोस फिर भी कुछ महिलाएं गृहिणी भी नहीं कहलाती है। कौन इन परिभाषा को गढ़ रहा है?
आज जरूरत है उनके अस्तित्व ,अस्मिता की रक्षा के लिए सोच में सुधार के साथ-साथ सख्त कानून बनाए जाने चाहिए । तभी महिला सशक्तिकरण सही दिशा में होगा। महिलाओं को भी अपने पिंक, पर्पल कलर से आगे सभी कलर्स को अपने अपने जीवन में भरना होगा। समाज को भी महिलाओं के पिंक कालर की सोच से आगे बढ़कर ब्लैक, वाइट एंड ब्लू कालर के बारे में भी सोचना होगा। आज कुछ महिलाएं एवरेस्ट फतह कर रही है। जबकि कुछ को कुएं का मेंढक बनाकर रख दिया है। कुछ महिलाएं आसमान छू रही है। तो दूसरी तरफ कुछ महिलाएं दहलीज पार करने से पहले भी सौ बार सोचती हैं । हमें समझना होगा जिस की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है उसी की सामाजिक-धार्मिक और राजनीतिक स्थिति भी। ऐसे में महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बनाया जाए । उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक डिजिटल शिक्षा भी प्रदान की जाए। इस दिशा में इस बार का महिला सशक्तिकरण का थीम अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। इन्नोवेशन एंड टेक्नोलॉजी फॉर जेंडर इक्वलिटी। सतत विकास के लक्ष्य को साधने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने ,आज के परम परिवर्तनशील प्रौद्योगिकी और डिजिटल युग में बढ़ती आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ए आई के प्रभाव को देखते हुए बेहतर शिक्षा आवश्यकता के साथ-साथ जीवन की अनिवार्यता का अंग बनती जा रही है। महिला समानता की दिशा में महिला को मनुष्य समझते हुए समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान जमीनी स्तर पर पहुंचना चाहिए। संसद के ठंडे बस्ते में पड़े 33% आरक्षण बिल को पास किया जाए।
बदलाव की बयार।
महिला को ही महिला की मदद के लिए आगे आना होगा। अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकल संघर्ष की सड़कों पर उतरना होगा। बदलाव की बयार स्वयं से ही शुरू करनी होगी।
दूसरा ,परिवर्तन की शुरुआत परिवार से हो। खासकर लड़कियों के साथ-साथ लड़कों को भी उचित मार्गदर्शन दिया जाए। उन्हें संस्कारवान बनाया जाए। जो बालक मां का सम्मान करेगा वह अपनी पत्नी का भी करेगा। घर के निर्णय में महिला की भी बराबर भागीदारी हो । शिक्षा ,शादी ,एजुकेशन ही नहीं जमीन ,जायदाद और व्यवसाय से संबंधित बड़े निर्णय में भी महिलाओं की भागीदारी हो। महिलाओं के प्रति समाज में संवेदनशीलता समानता,सामंजस्यपूर्ण सकारात्मक सोच में वृद्धि की शुरुआत पिता ,पति और पुत्र से होनी चाहिए । क्या आपने देखा है? जिस प्रकार एक पुरुष की प्रगति के पीछे ।एक महिला का हाथ होता है । उसी प्रकार एक महिला की प्रगति और उन्नति के पीछे भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से किसी ना किसी पुरुष का हाथ होता है। ऐसे में नारीवाद फेमिनिज्म पुरुष विरोधी नहीं है। शक्ति के बिना शिव भी शव के समान है । अर्धनारीश्वर आधी आबादी अबला नहीं सबला है। वे स्वच्छंदता नहीं स्वतंत्रता समानता और संप्रभुता चाहती है। संघर्ष से सफलता की कहानी सड़कों पर रेंगती हुई। आसमान में उड़ती है। तब सावित्रीबाई फूले और सुनीता विलियम्स बनती है। आक्रोश की सकारात्मक अभिव्यक्ति ही है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस।
Jaipur Bulldozer Action: जयपुर विकास प्राधिकरण की ओर से 9 अप्रैल को अतिक्रमण के खिलाफ…
Starting a business usually means spending money on a shop, hiring staff, buying stock, and…
PESA Act : जयपुर। जनजातियों की रक्षा करने वाला विश्व के सबसे बड़े संगठन अखिल…
Rajasthan News : जयपुर। प्रदेश अग्रवाल महासभा राजस्थान के जिला अध्यक्ष टिल्लू रूंडल बन गये…
National Human Rights : जयपुर। नेशनल ह्यूमनराइट्स और एंटी करप्शन फोर्स के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ.…
Pumpkin News : अक्सर देखा जाता है कि किसान भाई गर्मीयों की शुरूआत में बाड़ी…