14 अप्रैल 1990 से 14 अप्रैल 1991 की अवधि को बाबा साहब की याद में सामाजिक न्याय वर्ष मनाया गया।
अब प्रश्र उठता है कि क्या 1 वर्ष को सामाजिक न्याय वर्ष मनाने की अवधि से समाज में सामाजिक न्याय, समानता व्याप्त हो गई?
कभी-कभी समाज में अंबेडकरनिजम पर भी बहस होती है क्या बाबा साहब ने सिर्फ दलितों का साथ दिया या इससे आगे भी समाज में उनकी कोई भूमिका थी?
सच तो यह है कि जब-जब समाज में कोई व्यक्ति बहिष्कृत किया जाता है अथवा नीचा दिखाया जाता है। तब तब उस व्यक्ति के मन में अनेक प्रश्र जन्म लेते हैं। यह प्रश्र वे प्रश्र हैं। जो उसको अंदर तक झकझोर देते हैं। ऐसा ही कुछ बाबा साहब के साथ ही बचपन में हुआ। जब उन्होंने स्कूल में दाखिला लिया। तब अनेक प्रकार के भेदभाव से उनका स्वागत किया गया। ना तो उन्हें मटके से पानी पीने की इजाजत थी, ना ही दूसरे बच्चों के साथ समान शिक्षा ग्रहण करने दी गई। वे कक्षा में सबसे पीछे बैठते थे। ऐसा ही एक हादसा उनके साथ तब होता है। जब वह अपने पिता से मिलने जाते हैं। उस समय उन्हें बैलगाड़ी वाला दुगुने पैसे में बैलगाड़ी तो दे देता है। लेकिन खुद ऊतर जाता है। ऐसे में बहुत से प्रश्र बाबा साहब के दिमाग में उठे।
इसी भेदभाव अस्पृश्यता से दुखी होकर बाबा साहब ने पढ़ाई में प्रवीण होकर समाज के मुंह पर तमाचा मारा। उनका कथन था शिक्षा शेरनी का वह दूध है जो पिएगा वह दहाड़ेगा ऐसे में जब जब किसी ने तन मन से शिक्षा अर्जित की उसका जीवन सार्थक ही नहीं अपितु उसने समाज में बहुत कुछ हासिल किया। व्यक्ति महान तभी बनता है। जब वह स्वयं के दुख में सबका दुख देता है। एक उच्च पद प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने सुख को त्याग कर दलितों के उत्थान और उधार में कार्य किया। महात्मा गांधी और अंबेडकर दोनों ही महापुरुष की श्रेणी में आते हैं। किंतु फिर भी दोनों के विचारों में मतभेद था विचारों में मतभेद था लेकिन मनभेद नहीं। जहां अंबेडकर ने तीनो गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया, वही गांधी ने सिर्फ एक सम्मेलन को अटेंड किया।
किताब के पन्ने में जिस प्रकार साइड का एक कॉलम छोड़ दिया जाता है। जिसे हाशिया कहा जाता है। इसी हाशिए पर लिखा जाता है प्रश्न और उत्तर। क्या बिना हाशिए के वही सवाल हमारे सामाजिक व्यवस्था पर भी उठता है। सोचिए अगर कुछ दिन घर के लिखे हुए शब्दों से लेखों को समझ पाना आसान होता है? आस-पास कचरा उठाने वाले ना आए तो घर बाहर, सड़क का क्या हाल होगा? सोचिए वैसे ही पर्यावरण से अपघटक समाप्त हो जाए तो हमारा क्या होगा क्या हम सरवाइव कर पाएंगे?
समाज हो या पर्यावरण सबका अपना एक पिरामिड होता है और इस पिरामिड की संरचना जब बिगड़ती है। तब तब प्रकृति असंतुलित होती है। हमें समझना चाहिए कि हमारी प्रकृति में सबका बराबर योगदान है। यही मध्यम मार्ग भी है। मध्यम मार्ग वह मार्ग जिसका प्रतिपादन बुद्ध ने किया।अगर समाज में सब कुछ ठीक होता। समानता होती, ऊंच नीच का भेदभाव नहीं होता तो क्या अंबेडकर को दूसरा धर्म अपनाना पड़ता? शायद नहीं जब-जब धर्म में धर्म के ठेकेदारों के टेंडर धड़ल्ले से बनते हैं। तब तब देश में पाखंड, धर्मांधता, एकाधिकार पनपता है। धर्म को ना समझने वाले धर्म की गलत परिभाषाएं गढ़ते हैं और उसके बाद वे इसमें जात पात ले आते हैं। वरना सोचिए खून तो सब का एक ही रंग का होता है। हमारी उत्पत्ति का एक ही सिद्धांत है। फिर हम मनुष्य में भेदभाव क्यों ऋग्वेद में एक कथन है मैं कवि हूं मेरे पिता वैध हैं और मां चक्की चलाने वाली है भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम साथ साथ रहते हैं। इन कथनों से पता चलता है कि हमारा वैदिक युग समानता, संप्रभुता और सामंजस्य के सिद्धांत पर चलता था ।
अंबेडकर ने बौद्ध धर्म क्यों अपनाया?
काश हमारा समाज मध्यम मार्ग पर चलता अगर ऐसा होता तो क्या दूसरे धर्म उत्पन्न होते? शायद नहीं। अंबेडकर ने बहुत सी किताबें पढ़ी। प्रारंभिक समय में उनके पुस्तकालय में लगभग 8000 किताबें थी। वही उनके मरणोपरांत इनकी संख्या लगभग 35000 हो गई। इससे साफ पता चलता है कि उनको पढ़ाई में कितनी रुचि थी। शायद यही कारण था कि उन्होंने उस जमाने में भी 4 पीएचडी डिग्री प्राप्त की जो अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। बौद्ध धर्म में भी जब उन्होंने हीनयान, महायान और वज्रयान शाखाएं देखी तब उससे अलग अपनी नई शाखा नवयान का निर्माण किया परिवर्तन की लहर का उन्होंने हमेशा स्वागत किया। इनका मानना था कि ईश्वर और भक्त के मध्य तीसरे की कोई आवश्यकता नहीं है। हम सीधा ईश्वर से संपर्क कर सकते हैं। यही सिद्धांत आपो दीपो भव अर्थात स्वयं अपना दीपक बनो का हैअंबेडकर के माता-पिता धार्मिक होने के साथ-साथ कबीर के भी भक्त थे। कबीरपंथी होने के कारण ही उनकी विचारधारा निर्गुण भक्ति की ओर थी। जाती पाती पूछे नहीं हरि का भजे सो हरि का होई, सच तो यह है कि अगर आपने डॉक्टर अंबेडकर को नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा। वह एक ऐसे शख्सियत है जिन्हें पढ़कर ही आप उन्हें समझ सकते हैं। सच तो यह है कि आज जो आप और मेरी जैसी महिलाएं कुछ लिख पा रही है ।यह अंबेडकर की ही देन है क्योंकि उन्हीं के अथक प्रयासों से जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू एक्ट पास किया था। इतना ही नहीं वह तो यूनिवर्सल सिविल कोड के पक्षधर भी थे। इतना पढ़ने के बाद अगर कोई इंसान कुछ ना लिखें तो यह बात हजम होने वाली है ?ऐसे में डॉक्टर अंबेडकर की भी अनेक महत्वपूर्ण कृतियां हैं जिनमें एनीहिलेशन ऑफ कास्ट ,द अनटचेबल्स, बुद्ध और कार्ल मार्क्स, बुद्ध एंड हिस धम्मा, द प्रॉब्लम ऑफ रूपी आदि फेमस किताबों में है।
क्या भीमराव अंबेडकर सिर्फ दलितों के मसीहा थे?
14 अप्रैल 2023 को डॉ भीमराव अंबेडकर की 132वीं जयंती है। भारतीय संविधान के मुख्य निर्माताओं में भीमराव अंबेडकर का स्थान सर्वविदित है। वे एक कुशल विधिवेता होने के साथ-साथ कुशल राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और समाज सुधारक भी थे। समाज के सभी वर्गों को ऊपर उठाने में उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया
जन्म और शिक्षा दीक्षा
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891को तत्कालीन मध्य प्रांत के महू छावनी जो कि वर्तमान में मध्यप्रदेश में आता है। वहां हुआ था। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर 14 संतान में एकमात्र अपने माता पिता की ऐसी संतान थे। जो स्कूल गए थे। इनके पिता का नाम राम जी सतपाल और माता का नाम भीमाबाई था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अंबेडकर को ब्रिटेन और अमेरिका जाना पड़ा।
योगदान और भूमिका
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर फादर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन माने जाते हैं। उन्हें संविधान निर्माण की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। ऐसे में भारतीय संविधान निर्माण में उनकी भूमिका अग्रणीय है।
उनके प्रयास से ही संविधान में बहुत से ऐसे अनुच्छेद जोड़े गए। जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसीलिए अंबेडकर को आधुनिक भारत का निर्माता भी कहते हैं।
(1) संविधान में मूल अधिकारों का जो क्रम निर्धारित किया गया है। वह बाबा साहब की ही देन है। अनुच्छेद 14 से 18 इसीलिए समानता के अधिकार से जोड़े गए।
(2) मजदूरों के लिए जो कानूनी सुधार हुए। उनमें बाबा साहब की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
(3) आज जो हम महिलाएं शिक्षित हैं। उसका श्रेय बाबा साहब को ही जाता है
(4) दलितों, अल्पसंख्यकों, हाशिए पर छोड़ दिए जाने वालों को संवैधानिक आरक्षण का प्रावधान इन्हीं की देन है।
(5) यूनिवर्सल सिविल कोड अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता। जिसका आज हम पक्ष ले रहे हैं। यह सालों पहले अंबेडकर के दिमाग की ही सोच है।
समाज में समानता, स्वतंत्रता और सामंजस्य, बंधुत्व स्थापित करने में इनकी महती भूमिका थी। इन्हीं के अथक प्रयास से जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में हिंदू कोड बिल पास किया था।
धर्म परिवर्तन
जब जब किसी धर्म में अंधविश्वास, कुरीतियां और भेदभाव उभरते हैं। तब तब कुछ पीड़ित या बुद्धिजीवी लोग वहां से पलायन कर जाते हैं। ऐसे में बाबा साहब ने भी हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म अपना लिया। बौद्ध धर्म एक ऐसा धर्म है।जो मध्यम मार्ग पर चलता है। जहां बुद्ध ने अपने अनुयायियों में भेदभाव नहीं किया। चाहे स्त्री- पुरुष हो अथवा दलित।