जयपुर। भारत में लोकसभा चुनाव 2024 (Loksabha Election 2024) को लेकर बिगुल बज चुका है और 19 अप्रैल को पहले चरण की वोटिंग हो रही है। हालांकि, इससें ठीक पहले भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा चुनाव 2024 लड़ने से मना कर दिया है। सीतारमण का कहना है कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए संसाधन न तो साधन है और ना ही चुनाव जीतने की कला। हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब किसी वित्त मंत्री ने लोकसभा चुनाव लड़ने से हाथ पीछे खींच लिए हों। 1984 के बाद एकाध अपवाद छोड़ दिए जाएं तो कोई भी नेता वित्त मंत्री रहते हुए लोकसभा का चुनाव नहीं लड़े और यदि लड़े भी तो हार गए। तो आइए ऐसे में जानते हैं कि ऐसा क्यों होता आया है…
सन् 1952 में CD देशमुख को वित्त मंत्रालय दिया गया था, लेकिन 1957 के चुनाव से पहले ही उन्हें हटा दिया गया। उनकी जगह टीटी कृष्णामाचारी को वित्त मंत्री बनया गया। उनके बाद मोरारजी देसाई वित्त मंत्री बने। इसके बाद इंदिरा गांधी सरकार में यशंवतराव चव्हाण और सी सुब्रमण्यण वित्त मंत्री बनाए गए। जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो हिरु भाई पटेल वित्तमंत्री बनाया। चौधरी चरण सिंह सरकार में हेमवती नंदन बहुगुणा को वित्त मंत्रालय मिला। आपको बता दें कि 1980 तक वित्त मंत्री लोकसभा के चुनाव लड़ते और जीतते भी थे। परंतु, 1980 के बाद वित्त मंत्री द्वारा लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने या हारने का ट्रेंड चल पड़ा जो अभी भी कायम है।
इंदिरा गांधी जब 1980 में तीसरी बार पीएम बनीं तो उन्होंने आर वेंकेटरमण और प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्रालय दिया। प्रणब जब वित्त मंत्री बने तो वो गुजरात से राज्यसभा के सांसद थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में लोकसभा चुनाव हुए तो दोनों वित्त मंत्रियों ने चुनाव नहीं लड़ा। वेंकेटरमण को देश का उपराष्ट्रपति बनाया गया तो वो चुनावी प्रक्रिया से दूर हो गए। वहीं, जबकि प्रणव मुखर्जी को राजीव गांधी गुट ने अलग-थलग कर दिया था।
1989 में राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री शंकर राव चव्हाण भी चुनाव नहीं लड़े और उन्होंने बेटे अशोक चव्हाण को नांदेड़ सीट से उम्मीदवार बनाया। उनके सामने जनता पार्टी के. वेंकेटेश ने चुनाव लड़ा और अशोक चव्हाण को 24000 वोटों से हरा दिया। हालंकि, राज्यसभा के सहारे शंकर राव चव्हाण संसद पहुंच गए।
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कांग्रेस की जब 1991 में सत्ता आई तो पीवी नरसिम्हा राव को पीएम बनाया गया। उन्होंने अपने कैबिनेट में मनमोहन सिंह को शामिल किया जो उस समय किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। उनको पार्टी ने राज्यसभा के जरिए संसद में भेजा। 1996, 2004 और 2009 में मनमोहन सिंह के चुनाव लड़ने की चर्चा भी हुई, परंतु उन्होंने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा। इसके बाद 2004 में जब मनमोहन सिंह पहली बार पीएम बने तब भी वो राज्यसभा के ही सदस्य थे।
1999-2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की कैबिनेट में 2 वित्त मंत्री बनाए गए। शुरू के 3 साल जसवंत सिंह वित्त मंत्री रहे और बाद में यशवंत सिन्हा ने यह पद संभाला। 2004 में जशवंत सिंह ने चुनाव नहीं लड़ा। वहीं, यशवंत सिन्हा ने हजारीबाग सीट से चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। उनको सीपीआई के भानु प्रताप मेहता ने करीब 1 लाख वोटों से हराया। हालांकि, 2009 में सिंह इस सीट से वापस जीत गए।
UPA की पहली सरकार में मनमोहन सिंह बने और पी चिदंबरम को वित्त मंत्री बनाया। 2008 में मुंबई हमले के समय चिदंबरम गृह मंत्री बने जिसके बाद प्रणब मुखर्जी को वित्तमंत्रालय देने की चर्चा हुई, परंतु मनमोहन ने इसें खुद के पास ही रखा। 2009 में मनमोहन सिंह ने चुनाव नहीं लड़ा।
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UPA की मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में 2 वित्त मंत्री बने, लेकिन दोनों ने चुनाव नहीं लड़ा। सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में पहले प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाया गया। वो 2012 में राष्ट्रपति बन गए। फिर यह विभाग पी चिदंबरम को दिया गया। 2014 में पी चिदंबरम ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। कांग्रेस ने चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम को यहां से उम्मीदवार बनाया लेकिन वो हार गए। हालांकि, पी चिदंबरम अभी राज्यसभा के सांसद हैं और कांग्रेस पार्टी के लिए मेनिफेस्टो बना रहे हैं।
जब 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी अरुण जेटली को वित्त मंत्री बनाया गया। जेटली उस समय राज्यसभा से सांसद थे और वो लगभग पूरे 5 साल वित्त मंत्री रहे। जनवरी 2019 से फरवरी 2019 तक पीयूष गोयल वित्त मंत्री रहे। इसमें सबसे खास बात ये है कि 2019 लोकसभा चुनाव में ये दोनों ही वित्तमंत्री चुनाव नहीं लड़े। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में निर्मला सीतारमण वित्त मंत्री बनीं जो पूरे 5 साल तक रही। लेकिन अब उन्होंने लोकसभा चुनाव 2024 लड़ने से मना कर दिया।
दरअसल, लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए पैसे के साथ ही नेताओं के लिए समीकरण भी जरूरी होते हैं। इन दोनो में से यदि एक की भी कमी है तो उम्मीदवार के लिए जीतना मुश्किल हो जाता है। यहां पर समीकरण से मतलब सीटों का भौगोलिक और जातीय समीकरण होना है। आपको बता दें कि 1980 के बाद जितने भी वित्त मंत्री हुए उनमें से ज्यादातर पैराशूट राजनेता रहे। वित्त मंत्री का पद उनको पार्टी के आंतरिक राजनीति या किसी अन्य कारणों से दिया जाता रहा है। आइए इसें उदाहरण से समझते हैं-
जब 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार बनी तो कोई बड़ा नेता वित्त मंत्री नहीं बनना चाहता था। इसके बाद मनमोहन सिंह को एक डील के तहत वित्त मंत्री बनाया गया। इस डील के अनुसार यदि भारत आर्थिक संकट से नहीं उभरा तो मनमोहन को पद त्यागना पड़ेगा और यदि उभर गया तो इसका श्रेय दोनों के बीच बंटेगा। वित्त मंत्री बनाने के बाद मनमोहन को राज्यसभा के जरिए उच्च सदन भेजा गया।
जब 2024 में मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो पी चिदंबरम को वित्त मंत्रालय दिया गया। लेकिन उन्होंने 2009 का चुनाव नहीं लड़ा।
साल 2014 में अरुण जेटली ने लोकसभा चुनाव लड़ा जिनके लिए पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने ऐलान करते हुए कहा कि अरूण जेटली को जिताइए। ये वित्त मंत्री बनेंगे और जनता की मदद करेंगे। हालांकि, जेटली चुनाव हार गए। परंतु लेकिन पार्टी की अंदरुनी राजनीति और प्रधानमंत्री से मित्रता के चलते उनको वित्त मंत्री बनाया गया। उनके द्वारा चुनाव नहीं लड़ने की एक दूसरी बड़ी वजह एंटी इनकंबैंसीभी थी। अक्सर प्रतयेक चुनाव में महंगाई बड़ा मुद्दा होता जो सीधे तौर पर सरकार के वित्त मंत्रालय से जुड़ा होता है। CDS के अनुसार 2019 में 4 फीसदी लोगों ने महंगाई को तो 11 फीसदी लोगों ने बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा माना। वहीं, 2014 में 19 फीसदी लोगों के लिए महंगाई एक बड़ा मुद्दा रहा।
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