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दुख का हद से गुजर जाना दवा बन जाता है। कैसे एक छोटे से गांव की महिला सविता आईएएस बनी?

वो कहते हैं ना, तारीफ़ दिन बनाती है तो ताने जिंदगी बना देते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ एक घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला के साथ। ससुराल में तिरस्कार, अपमान और घरेलू हिंसा महिलाओं के लिए कोई नई बात नहीं है। लेकिन इन सब से निकलकर बहुत कम ऐसी महिलाएं होती हैं। जो इसके खिलाफ आवाज उठाती हैं या कुछ कर गुजरने की हिम्मत रखती हैं। ऐसी ही एक महिला आईएएस ऑफिसर बनी है।

जिसका नाम है IAS सविता प्रधान। ऐसी विरली महिला ही होती है। जो अपने आत्मविश्वास, हौसले और कड़ी मेहनत से जीवन की पूरी कहानी बदल देती हैं। ऐसी कहानी हौसला तो बढ़ाती ही है साथ में आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। उन महिलाओं और लड़कियों का जो घरेलू हिंसा से पीड़ित हैं और कुछ बनना चाहती हैं।

क्या कहा आईएस सविता ने

उन्होंने कहा मैं ससुराल की यात्राओं से तंग आ चुकी थी। मेरा पति मुझे छोटी-छोटी बातों पर भी पिटता  था, जैसे मैं कोई जानवर हूं। 2 बच्चों के जन्म के बाद तो स्थिति और भी खराब हो गई। नापतोल कर खाना मिलता था। मैं धीरे-धीरे मर रही थी। मेरा जीवन हर दिन अपमान और प्रताड़ना से गुजरता था। ऐसे में मेरी आत्मा को छलनी कर दिया गया। अब मेरी सहनशक्ति धीरे-धीरे जवाब देने लगी थी। एक दिन मैंने वह कदम उठाने की सोची। जिसे सोच कर आज भी मेरी रूह कांप उठती है।

जब दर्द हद से गुजर जाता है तब वही दवा बन जाता है

 ऐसा ही कुछ हुआ। आईएएस ऑफिसर सविता प्रधान के साथ। मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के मड़ई गांव में जन्मी सविता प्रधान पढ़ाई में तो तेज थी लेकिन आगे पढ़ नहीं पाई। दसवीं क्लास पास करने वाली वह गांव की पहली लड़की बनी थी। लेकिन आर्थिक हालात खराब होने की वजह से अच्छी पढ़ाई नहीं कर पाई ।इसी बीच सविता के लिए एक बड़े घर से शादी का रिश्ता आ गया। लड़के के पिता बड़े ओहदे पर थे।

डिस्ट्रिक्ट जज ससुर ने बड़े-बड़े सपने दिखाए-, कहा कि मैं अपनी बेटी को तो डॉक्टर नहीं बना पाया पर अपनी बहू को जरूर बनाऊंगा। ऐसे में सविता ने रिश्ते की हां भर दी। जबकि लड़का उमरी में लगभग 11- 12 साल बड़ा था। उसकी शादी 1998 में मात्र 16 साल की उम्र में कर दी गई।

उसका ससुराल का जीवन आगे चलकर नर्क साबित हुआ। जिसमें उसे खाने के लिए दो वक्त की रोटी भी नहीं मिलती थी। ऐसे में अल्प आयु में ही वह कुपोषित होने लगी। सविता ने बताया उसको बार-बार आत्महत्या के विचार आते थे। कभी यह ख्याल आता था कि सभी को जहर देकर मार दूं या फांसी के फंदे पर लटक जाऊं। आत्महत्या करने का उसने प्रयास भी किया था। आत्महत्या करने के दौरान जब वह दरवाजा तो बंद कर कर बैठ गई। लेकिन खिड़की बंद करना भूल गई और सास ने उसे देख कर भी अनदेखा किया। तब उसके मन में ख्याल आया। मैं इन लोगों के लिए जान दे रही हूं? इन्हें तो मेरा ख्याल ही नहीं। यही सोच कर मैं दो बच्चों को लेकर घर से निकल गई।

उन्होंने बताया उन्हें पार्लर का काम भी करना पड़ा। उसके बाद 2004 में मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग में उन्होंने परीक्षा उत्तीर्ण की इसके बाद यह सफर जारी रहा और आज सविता चंबल ग्वालियर जिले की ज्वाइंट डायरेक्टर है। सचमुच ऐसी प्रेरक कहानियां प्रेरणा का स्रोत है। उन महिलाओं के लिए जो महिला उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की शिकार है। और अपने सपने को किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाई ।

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