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एक तरफ समाज सरकार, विभिन्न संगठन दूसरी तरफ चंद समलैंगिक, क्या होगा सुप्रीम कोर्ट का निर्णय?

19 अप्रैल समलैंगिक शादियों को मान्यता देने वाली याचिका का विरोध करते हुए केंद्र सरकार ने इस मामले को राज्य सरकारों की झोली में डाल दिया। केंद्र सरकार ने अदालत में बुधवार नया हलफनामा देते हुए यह भी कहा है कि इस मामले में किसी फैसले से पहले राज्यों की भी राय लेनी चाहिए। सरकार का कहना है कि हमने इस संवेदनशील विषय को राज्य सरकार को बताया है। अब हम उनका इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में राज्य के जवाब आने तक इस विषय पर सुनवाई रोक देनी चाहिए।
दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को इस मामले में पक्षधर पार्टी बनाने से इंकार कर दिया है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा अगर ऐसा है तो फिर हमें भी वक्त मिलना चाहिए। जिससे हम राज्यों की सलाह ले सके।

समलैंगिकता, संवेदनशील और गंभीर विषय है

इस संवेदनशील विषय को सरकार ने राज्य सरकार से जुड़ा हुआ मामला भी बताया सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, संसद समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसे में इस पर कानून बनाने का अधिकार संसद का है। चंद याचिकाओं के आधार पर और कुछ बुद्धिजीवियों के आधार पर इस विषय को नहीं छोड़ा जाना चाहिए।

वहीं केंद्र सरकार की टिप्पणी पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा हम किसी को यह परमिशन नहीं देते कि वह हमें बताइए कि हमें कौन से मामले की सुनवाई करनी है और कौन से कि नहीं? सीबीआई ने कहा क्या स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत पति के तौर पर पुरुष और पत्नी के तौर पर महिला को हटाकर क्या पर्सन नहीं लिखा जा सकता?

केंद्र सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि समलैंगिक शादी समाज के हर समुदाय से जुड़ी है। ऐसे में इस गंभीर विषय पर राज्य सरकारों का भी मत जानना जरूरी है। तब तक इस मामले को स्थगित कर दिया जाए।

शक्ति पृथक्करण का टकराव

केंद्र ने कहा कि विवाह एक सामाजिक वैधानिक संस्था है। और सनातन काल से यह चली आ रही है। ऐसे में कानून बनाने का अधिकार अगर किसी को है तो वह भी विधायिका को है। यह संसद के क्षेत्राधिकार का मामला है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। तुषार मेहता ने तो यहां तक कह दिया कि यह याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। केंद्र को पहले सुना जाना चाहिए क्योंकि  वह अदालत के समक्ष भी याचिकाओं की सुनवाई योग्य होने का विरोध कर रहा है।
दूसरी तरफ वरिष्ठ वकील और नेता कानूनविद कपिल सिब्बल ने भी इस मामले में राज्यों को भी पार्टी बनाया जाने की वकालत की।

दूसरी तरफ याचिकाकर्ताओं की वकील मेनका गुरुस्वामी ने कहा हमें भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार मूल अधिकारों की श्रेणी में है। इसलिए इसे सुना जाना चाहिए। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा कि मैं अपने परिवार के लिए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन का बीमा नहीं खरीद सकती। जबकि मैं इसकी मेंबर हूं। मैं अपने पार्टनर को इंश्योरेंस के लिए नॉमिनेट नहीं कर सकती।
 

क्या होगी आगे की राह?

समाज बनाम समलैंगिकता किसके पक्ष में आएगा निर्णय? यह तो समय ही बताएगा लेकिन इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार में ठनी हुई है। देखते हैं ऊंट किस करवट बैठेगा?एक तरफ पूरा समाज, सरकार और विभिन्न संगठन है दूसरी तरफ चंद समलैंगिक।याचिकाकर्ताओं का कहना है कि पति-पत्नी शब्द की जगह  जीवनसाथी शब्द का प्रयोग किया जाए, इसे जेंडर न्यूट्रल बना दिया जाए तो क्या हर्ज है?

5 सदस्य संवैधानिक पीठ के चीफ जस्टिस मिलकर इस विषय पर केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और याचिकाकर्ताओं की पैरवी करने वाले मुकुल रोहतगी से इस गंभीर विषय पर चर्चा कर रहे हैं। केंद्र ने राज्यों से भी कहा है कि वे 10 दिन में इस मामले में अपना नजरिया दे।

याचिकाकर्ता मुकुल रोहतगी ने एलजीबीटी समुदाय के लिए शादी की घोषणा को उनका मौलिक अधिकार हो बताया। याचिकाकर्ता लोगों का कहना है कि हमें समाज नॉर्मल नजरिए से नहीं देखता है। ऐसे में हमें भी अपने संवैधानिक और कानूनी अधिकार चाहिए। हमारे साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं होना चाहिए ।

हम भी अपनी निजता और जीवन के अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते हैं। इस पर सुप्रीम कोर्ट जस्टिस कौल ने कहा-आप यह कह रहे हैं कि आपको विशेष ऐलान चाहिए। इस केस को बहुत अधिक विस्तार ना दिया जाए ,क्योंकि इससे समस्याएं खड़ी हो जाएंगी।

इस पर याचिकाकर्ता ने कहा हां मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पूरा संघर्ष खत्म हो जाएगा। मेरा कहने का मतलब यह है कि इससे स्पष्टता आ जाएगी क्योंकि लोग हमें सामान्य नहीं समझते। समाज में जिनका बहुमत ज्यादा है वही नॉर्मल है। हम नहीं लेकिन यह कानून नहीं है यह सोच है उनकी।

याचिकाकर्ताओं ने पुराने कानूनों में हुए सुधार का समर्थन करते हुए पुनर्विवाह हिंदू विवाह जैसी धारणाओं को सामने रखा। आधुनिक सोच के हिसाब से समाज को बदलने की सलाह दी। समलैंगिकों को सम्मान चाहिए। क्योंकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है कोर्ट के पास जनता का भरोसा और नैतिक अधिकार दोनों है हमें उस पर पूरा विश्वास है।

अब हमें ब्रिटिश काल के कॉलोनियल लेजिसलेशन की जगह कॉलोनियल माइंडसेट शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं ।इससे पता चलता है कि समाज विकसित हो रहा है। हमें इस पुरानी औपनिवेशिक सोच से बाहर निकलकर, आधुनिक सोच में आना होगा। केंद्र को भी अपने रवैए में बदलाव लाना चाहिए।
कोर्ट रूम में में बहस अभी जारी है
 

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