जयपुर। Supreme Court ने अनुसूचित जाति को मिले आरक्षण को लेकर बड़ा फैसला दिया है। इस फैसले के तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया है कि वो अपने राज्य में एसी कोटे में से किस जाति को कितना आरक्षण देना है। इस गुरूवार को दिए गए इस बड़े फैसल में सर्वोच्च अदालत ने 20 साल पुराना अपना ही फैसला पलटा है। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जातियां खुद में एक समूह है, इसमें शामिल जातियों के आधार पर और बंटवारा नहीं किया जा सकता, लेकिन अब फैसला पलट दिया गया है।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संविधान पीठ ने दिया है जिसमें कहा गया कि अनुसूचित जाति को उसमें शामिल जातियों के आधार पर बांटना संविधान के अनुच्छेद-341 के खिलाफ नहीं है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए फैसले में राज्यों के लिए जरूरी हिदायत देते हुए कहा है कि राज्य सरकारें इस मामले को मनमर्जी से फैसला नहीं कर सकतीं। इसके लिए उन्हें 2 शर्तें माननी होंगी जो इस प्रकार हैं:—
1. : अनुसूचित जाति के अंदर किसी एक ही जाति को आरक्षण 100% कोटा नहीं दिया जा सकता।
2. : अनुसूचित जाति में शामिल किसी जाति का कोटा तय करने से पहले उसकी हिस्सेदारी का पुख्ता डेटा तैयार करना होगा।
सर्वोच्च अदालत ने यह फैसला उन याचिकाओं पर सुनाया है, जिनमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण का फायदा उनमें शामिल कुछ ही जातियों को मिला है। इस कारण कई जातियां पीछे रह गई। उनको समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए कोटे में कोटा होना जरूरी है। हालांकि, इस दलील के आड़े 2004 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया वो फैसला आ रहा था, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जातियों को सब-कैटेगरी में नहीं बांटा जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अब राज्य सरकारें अपने यहां अनुसूचित जातियों में शामिल अन्य जातियों को भी कोटे में से कोटा दे सकेंगी। इसका मतलब अनुसूचित जातियों में जो जातियां आरक्षण से वंचित रह गई हैं, उनके लिए विशेष कोटा बनाकर उन्हें आरक्षण दे सकेंगी, ताकि उनका भी विकास हो सके। उदाहरण के तौर पर पंजाब राज्य ने 2006 में अनुसूचित जातियों के निर्धारित कोटे के अंदर से मजहबी सिखों व वाल्मीकि लोगों को सार्वजनिक नौकरियों में 50% कोटा और पहली वरीयता दी थी।
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1. CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कहा कि कोटे में कोटा देने से आर्टिकल 14 का उल्लंघन नहीं होता है क्योंकि, सब-कैटेगरीज को सूची से बाहर नहीं किया गया है। संविधान का आर्टिकल 15 और 16 में ऐसा कुछ नहीं जो राज्य को किसी जाति को सब-कैटेगरी में बांटने से रोकता है। शेड्यूल कास्ट की पहचान बताने वाले पैमानों से यह पता चल जाता है कि वर्गों के अंदर बहुत ज्यादा फर्क है।
2. जस्टिस बीआर गवई इसको लेकर कहा कि सब कैटेगरी का आधार मर्जी से नहीं बल्कि राज्यों के आंकड़ों के आधार पर होना चाहिए। ऐसा इसलिए की आरक्षण के बाद भी निम्न स्तर के लोगों को अपने पेशे को छोड़ने में परेशानी होती है। ईवी चिन्नैया केस को लेकर उन्होंने कहा कि इसमें असली गलती ये है कि यह इस समझ पर आगे बढ़ा कि आर्टिकल 341 रिजर्वेशन का बेस है।
3. जस्टिस गवई ने भी टिप्पणी की है कि इस जमीनी सच्चाई मना नहीं कर सकते कि एससी/एसटी के अंदर ऐसी कैटेगरीज हैं जिन्हें सदियों से उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है। सब कैटेगरी का आधार ये है कि बड़े समूह के अंतर्गत आने वाले एक समूह को ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अनुसूचित जातियों के हाई क्लास वकीलों के बच्चों की तुलना गांव में मैला ढोने वाले के बच्चों से नहीं कर सकते।
4. जस्टिस गवई ने यह भी कहा कि भीमराव अंबेडकर ने कहा है कि इतिहास बताता है कि जब नैतिकता का सामना अर्थव्यवस्था से होता है, तो जीत अर्थव्यवस्था की होती है। सब-कैटेगरी की आज्ञा देते समय, राज्य केवल एक सब-कैटेगरी के लिए 100% आरक्षण नहीं रखेगा।
5. जस्टिस शर्मा ने कहा कि मैं जस्टिस गवई के इस विचार से सहमत हूं कि एससी/एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान का मामला राज्य के लिए संवैधानिक अनिवार्यता होना चाहिए।
इस फैसले में असहमति जताने वाली इकलौती जज जस्टिस बेला एम त्रिवेदी ने कहा कि यह देखा गया कि आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में राज्य अनुसार रिजर्वेशन के कानूनों को हाईकोर्ट्स ने असंवैधानिक बताया है। आर्टिकल 341 को लेकर भी यह कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्ट्रपति की अधिसूचना अंतिम मानी जाती है। सिर्फ पालिर्यामेंट ही कानून बनाकर सूची के भीतर किसी वर्ग को शामिल या बाहर करती है। उन्होंने कहा कि एसी जाति कोई साधारण जाति नहीं, यह सिर्फ आर्टिकल 341 की अधिसूचना के तहत अस्तित्व में आई है। अनुसूचित जाति वर्गों, जनजातियों का एक मिश्रण है और एकबार अधिसूचित होने के बाद एक समरूप समूह बन जाती है। राज्यों का सब-क्लासिफिकेशन आर्टिकल 341(2) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना के साथ छेड़छाड़ करने जैसा है। उन्होंने कहा कि इंदिरा साहनी की तरफ से पिछड़े वर्गों को अनुसूचित जातियों के नजरिए से नहीं देखा गया है। आर्टिकल 142 का यूज एक नई बिल्डिंग बनाने के लिए नहीं कर सकते, जो संविधान में पहले से मौजूद नहीं थी। कभी-कभी पॉजिटिव एक्टिविटीज की नीतियों और संविधान में कई तरह से मतभेद होते हैं। इन नीतियों को समानता के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। मेरा मानना है कि ईवी चिन्नैया मामले में निर्धारित कानून सही है और इसकी पुष्टि की जानी चाहिए।
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