'चीं चीं करती चिड़िया आई, बच्चों को वो खाना लाई।'…..कविता में गुथी इन पंक्तियों को हम बचपन से सुनते आए हैं। लेकिन घर में फुदकने वाली छोटी सी गौरेया वर्तमान में फ्लेट्स बनने ले लुप्त होती जा रही है। शहरों में तो पेड़ों की कमी से गौरेया का ठिकाना छिन ही गया है लेकिन गांवों में भी अब जंगल धीरे-धीरे कम होने से पक्षियों की यह प्रजाति बहुत ही कम नजर आती है।
यह एक ऐसी प्रजाति है, जिसे सभी जगह पर अलग अलग नाम से जाना जाता है, जिनमें चिड़िया, चिमनी, चिड़ी आदि प्रमुख हैं। इस मुंडेर से उस मुंडेर तक फर्र फर्र फुदकने का सुंदर दृश्य अब देखने का नहीं मिलता। हर साल 20 मार्च को गौरेया के प्रति जागरूक करने के लिए गौरेया दिवस मनाया जाता है। सालों पहले पक्षियों की चहचहाहट से ही इंसान को समय का अंदाजा लगता था कि सुबह हो गई है।
पक्षियों की धुन सुनकर ही सब लोग सुबह की शुरुआत करते थे लेकिन वर्तमान में ना तो व्यक्ति को अपने काम से फुर्सत मिलती है और ना ही अब पक्षियों का वो कलरव सुनाई देता है। प्रकृति में हुए बदलाव ने ना सिर्फ इंसानों का जीवन बदला है बल्कि पशु-पक्षियों का भी जीवन बदल गया है। पक्षियों की अधिकांश प्रजातियां प्रकृति और उसमें पलने वाले मानव की सबसे श्रेष्ठ मित्र हैं।
गौरेया सहित सभी पक्षी उन कीटों से अपना आहार लेते है जो खेतों में पैदा होने वाली उपज को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन वर्तमान में फसलों में आवश्यकता से अधिक कीटनाशकों का प्रयोग होने के कारण पक्षियों की प्रजातियां भी खत्म होने लगी है। प्रकृति और पक्षियों के प्रति इसी चिंता के चलते गौरेया के संरक्षण के उद्देश्य से 13 वर्ष पहले गौरैया दिवस मनाने का फैसला किया गया था।
गौरेया दिवस का उद्देश्य पूरी दुनिया में जागरूकता बढ़ाना और पक्षी की रक्षा करना है। सबसे पहले विश्व गौरैया दिवस वर्ष 2010 में मनाया गया था। गौरैया के संरक्षण और शहरी जैव विविधता के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसे एक मंच के रूप में उपयोग करने पर विचार किया गया। घरेलू गौरैया एक बहुत ही सामाजिक पक्षी है और हर मौसम में झुंड में रहती है। यह कई सामाजिक गतिविधियों में संलग्न होती है। लेकिन आज गौरेया सिर्फ पुस्तकों, कविताओं में ही हैं। गौरेया का जीवन काल 4 से 7 साल है। यह हमेशा चौकन्ना रहता है। किसी की जरा-सी आहट पाते ही यह फुर्र से उड़ जाता है।
रिपोर्टर प्रकाश चंद्र शर्मा