ajmer Sharif Dargah ki deg history
जयपुर। Ajmer Sharif Dargah Deg : राजस्थान के अजमेर जिले में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में दुनिया के सबसे बर्तनों में एक बर्तन मौजूद है। यहां पर बड़ी देग हैं जिनमें शाकाहारी खाना पकता है। यहां पर एक बड़ी देग है जिसको मुगल बादशाह अकबर ने मन्नत पूरी होने पर दरगाह को भेंट की थी। इस देग में 4800 किलो चावल एकसाथ पकाए जाते हैं। इसके अलावा ऐसी एक देग है जिसको छोटी देग कहा जाता है जिसें जहांगीर ने बनवाकर दरगाह को भेंट किया था। इस छोटी देग में एकबार में 2400 किलो चावल पकाए जाते हैं।
अजमेर शरीफ दरगाह में बुलंद दरवाजे के नजदीक एक ओर बड़ी और दूसरी ओर छोटी देग है। यहां स्थित बड़ी देग को दुनिया का सबसे बड़ा बर्तन बताया जाता है। इसको मुगल बादशाह अकबर ने औलाद होने की मन्नत पूरी होने की खुशी में भेंट किया था। अकबर औलाद की मन्नत पूरी होने के बाद आगरा से अजमेर तक पैदल चल कर आया था।
अजमेर शरीफ दरगाह देग में सिर्फ शाकाहारी खाना पकाया जाता है। यहां पर स्थित छोटी और बड़ी देग में मीठे चावल ही पकाए जाते हैं। इसके पीछे का कारण सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह पर सभी धर्म और जाति के लोगों का आना है। इसी वजह से छोटी और बड़ी देग में कभी भी मांसाहारी भोजन नहीं पकाया गया। इसमें केवल मीठे चावल ही पकाए जाते हैं जो रात में पकते हैं और सुबह यात्रियों में वितरित किए जाते हैं। हालांकि, उर्स के मौके पर छोटी देग में हर रोज तबर्रुक पकाया जाता है।
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अजमेर शरीफ दरगाह परिसर में स्थित बड़ी और छोटी देग यात्रियों की आस्था से जुड़ी है। ख्वाजा साहब से मन्नत पूरी होने पर जायरीन अपनी आस्था और क्षमता के अनुसार देग पकवाते हैं और लंगर बांटते हैं। यहां आने वाले यात्रि इन दोनों देगों में पैसा, जेवर, शक्कर, चावल, मेवे अपनी श्रद्धा के अनुसार डालते हैं जिससें कि यहां बनने वाले लंगर में उनका भी सहयोग हो सके। इतना ही नहीं बल्कि कई लोग तो खुद ही पूरी देग पकवाते है। इसके लिए वो आवश्यक सामग्री मंगवाकर भेंट करते हैं।
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अजमेर शरीफ दरगाह देग में जो पकवान करता है उसें केसरिया भात भी कहा जाता है। इसमें यूज की जाने वाले आवश्यक सामग्रियों में चावल, देशी घी, मेवे, शक्कर, केसर, इलायची आदि शामिल हैं। हालांकि, छोटी देग पकवाने के लिए पहले ही बुकिंग करवानी होती है। इसके अलावा दरगाह के लंगर खाने में 2 बड़े कड़ाव और भी हैं जहां परंपरागत रूप से जौ का दलिया ही पकाया जाता है। कहा जाता है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिस्ती अज़मेर आने के बाद अपने जीवन काल में जौ का दलिया ही खाया करते थे। इस वजह से आज भी यहां पर जौ का दलिया बनाया जाता है और लोगों में बांटा जाता है।
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