जयपुर की वो काली और दर्दनाक शाम फिर कभी नहीं आए। मात्र 16 मिनट में जयपुर की सड़कों पर खून की नदियां बह निकली। लाशों के चिथड़े चारों ओर फैले पड़े थे। घायल चीख-पुकार मचा रहे थे। अफरातफरी मची हुई थी। लोग जान बचाने के लिए इधर -उधर भागे जा रहे थे। जिधर वो जाते, वहीं से धमाकों की गूंज सुनाई दे रही थी। 13 मई 2008 की यह हत्यारी शाम थी। जिसमें बस 15 से एक मिनट ज्यादा यानि 16 मिनट में जयपुर का अमन चैन खत्म हो गया था। मरने वालों में निर्दोष थे, जिनका कोई गुनाह नहीं था।
मंगलवार का दिन था। लोग अपने आराध्य बजरंग बली के दर्शनों के लिए शाम को गए हुए थे। तभी एक के बाद एक आठ जगहों पर धमाके हुए। सारा गुलाबी शहर खूनी रंग में रंग गया। ब्लास्ट इतने ताकतवर थे कि मानव शरीर के चिथड़े उड़ गए। बस एक बम जिन्दा मिला, जिसे डिफ्यूज करने में सफतला मिल गई, वहीं सबसे ताकतवर बम था, फट जाता तो ना जाने कितने मासूम लोग और अकारण मौत के आगोश में चल जाते। मरने वालों में स्त्री- पुरुष और बच्चे शामिल थे। तकरीबन 72 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। करीब 186 लोग घायल हुए थे, कई घायलों ने तो बाद में दम तोड़ दिया, जो बचे रहे, वो आज भी दर्द झेल रहे हैं।
8 मई 2013 को जैसे ही संध्या आरती का समय हुआ, वैसे ही मंदिरों के घंटे-घड़ियाल बजने की जगह धमाकों की गूंज सुनाई दे रही थी। यह गूंज बहुत भयावह थी। इसमें चीत्कार थी। साइकिलों में सब जगह बम फिट करके रखी गई थी। इनमें छर्रे फंसे हुए थे और आरडीएक्स का इस्तेमाल किया गया था। आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन ने इसके जिम्मेदारी ली थी।
बम ब्लास्ट का मैं गवाह था। बतौर पत्रकार इसकी रिपोर्टिंग का जो अनुभव रहा उसने भावनाओं को वश में रखते हुए अपने पत्रकारिता धर्म को निभाने का इम्तिहान था। आंखों में लोगों की अकाल मृत्यु को लेकर आंसू थे, लेकिन बाहर नहीं निकल रहे थे। मेरी टीम में कई गर्ल्स भी रिपोर्टिंग कर रही थी। उनके जज्बे को देखकर हर कोई हतप्रभ था। सारे पत्रकार साथी मिलकर ना केवल रिपोर्टिंग कर रहे थे, बल्कि घायलों को बचाने में भी जुटे हुए थे। सवाई मानसिंह अस्पताल में लाशों के ढेर लग गए, अस्पताल के इमरजेंसी में जगह कम पड़ गई। पूरा फर्श खून से सन गया। एक के ऊपर एक लाशों को रखा गया। लाशें पोटली में आ रही थी। किसी का हाथ अलग था तो किसी की दोनों टांगें गायब थी। किसी का धड़ ही गायब था। घायलों की दुर्दुशा देखकर हर कोई कांंप रहा था। अस्पताल के डाक्टरों ने जिस तरह से घायलों के इलाज में अपनी जी जान लगाई, उसके लिए सदियों तक वो प्रशंसा के हकदार रहेंगे।
जयपुर की जनता की इंसानियत, मानवीयता देखते ही बन रही थी। कर्फ्य के बावजूद लोग घायलों को बचाने के लिए अस्पताल में जुट गए। खून की कमी के कारण अब कोई इस दुनिया से ना जाए, इसके लिए रक्त दाताओं का मेला लग गया। डाक्टरों को बार बार उद्घोषणा करनी पड़ रही थी, अब खून की जरूरत नहीं है। जरूरत से ज्यादा खून लोग दान कर चुके हैं। हत्यारी शाम को वैसे तो गुजरे 15 साल गुजर गए, लेकिन उस धमाके में जो घायल बच गए, हकीकत में आज भी वो जख्मी हैं। उनके शरीर से छर्रे निकाले नहीं जा सके हैं। पेट की खातिर वो मजदूरी कर रहे हैं, लेकिन छर्रों के साथ।
जयपुर वो स्याह शाम भूलना चाहता है। न्याय की उम्मीद करता है। निचली अदालत से चार आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन जांच में लापरवाही के कारण हाईकोर्ट से चारों आरोपी बरी हो गए। दो आरोपी अभी फरार हैं। जब चारों बरी हो गए तो जयपुर की जनता सकते में आ गई और सरकारी लापरवाही को कोसने लगी। सरकार की किरकिरी हुई थी तो एएजी को हटा दिया गया। एएजी 48 दिन तक सुनवाई चली, लेकिन वो गए ही नहीं और अपने असिसटेंट के भरोसे इतना बड़ा मामला छोड़ दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही जयपुर की इस घटना पर सरकार की लापरवाही को इंगित करते हुए निंदा की है। हाईकोर्ट ने इस लापरवाही को गंभीरता से लेते हुए डीजी को जांच अधिकारियों के खिलाफ जांच के निर्देश दिए हैं।
जयपुर की जनता ने कैंडिल जलाकर विरोध-प्रदर्शन किया। भाजपा इसको लेकर सरकार के खिलाफ लगातार आक्रामक रूख अपनाए हुए है। कांग्रेस की प्रदेश में सरकार होने के कारण इस लापरवाही पर बोलने की कोई विधायक या नेता हिम्मत नहीं कर पा रहा है। जनता इस साल होने वाले चुनाव में सवाल करेगी, जरूर करेगी।
सवाल यह है कि आखिर इतने बड़े स्तर पर इस तरह की चूक हो सकती है। कैसे जयपुर के हत्यारे फांसी के फंदे से साफ बचकर बाहर आ सकते हैं। कैसे बिना मिलीभगत के इस तरह की लचर जांच हो सकती है। कैसे जांच अधिकारी इतने लापरवाह हो सकते हैं कि निचली अदालत से फांसी की सजा के बाद हाईकोर्ट से कोई बरी हो जाए। सवाल यह भी उठता है कि इसके पीछे कोई राजनीतिक संरक्षण तो नहीं है।
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