जयपुर। चुनाव का एक और सियासी मौसम शुरू होने वाला है। विधानसभा चुनाव की तिथियां कभी भी घोषित हो सकती है। राजनीतिक दल और प्रशासनिक अधिकारी एक्शन मोड पर है। राजनीति उठापटक के बीच मेवाड़ का जिक्र चल पड़ा है। चर्चा हो भी क्यो न पीएम मोदी गांधी जयंती के अवसर पर दोबारा राजस्थान के दौरे पर आने वाले है। मोदी इस बार मेवाड़ में जनसभा को संबोधित करेंगे। पीएम मोदी बांसवाड़ा के मानगढ़ धाम पहले भी आ चुके हैं। इससे पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह मेवाड़ में जनसभा कर चुके हैं। और राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का चरण मेवाड़ से ही शुरू हुआ था। राजस्थान की सियासी दलों की इस सक्रियता की वजह भी है क्योंकि मेवाड़ की सियासत में कहा जाता है कि जिसने मेवाड़ जीत लिया उसने राजस्थान जीत लिया।
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राजस्थान का मेवाड़ जो आपको हर कुछ क़दम पर सैकड़ों साल पुराने इतिहास की सैर कराता है इसके ऐतिहासिक क़िले, महल और स्मारक इस जगह की कहानी ख़ुद-ब-ख़ुद कहते हैं। वहीं,गाँव से अलग इसके शहरी इलाक़े होटलों, गाड़ियों और सुविधाओं के साथ आधुनिकता का अहसास भी कराते हैं। इसी नए और पुराने का मेल मेवाड़ के मिजाज़ में नहीं बल्कि राजनीति में भी दिखता है। जहाँ ज्वलंत मुद्दे तो हावी रहते ही हैं,लेकिन मेवाड़ के इतिहास और संस्कृति का प्रभाव भी नज़र आता है।
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मेवाड़ की भारत के इतिहास में ख़ास जगह है। यहाँ के शासकों बप्पा रावल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप के क़िस्सों ने मेवाड़ को अलग पहचान दी है। मेवाड़ की इसी विरासत की झलक नेताओं के बयानों और घोषणाओं में मिलती है। फिर चाहे वो महाराणा प्रताप के इतिहास को लेकर बदलते पाठ्यक्रम हों या पद्मावती फ़िल्म को लेकर हुआ विवाद। ऐसे में अपने ऐतिहासिक महत्व के साथ मेवाड़ राजस्थान की सियासत में भी रसूख रखता है। मेवाड़ ने राजस्थान को चार मुख्यमंत्री दिए हैं, जिनमें मोहन लाल सुखाड़िया सबसे ज़्यादा समय 16 साल तक इस पद पर बने रहे। मेवाड़ के नेताओं को मंत्रिमंडल में भी जगह मिलती रही है।
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कांग्रेस सरकार में मेवाड़ के रामलाल जाट, उदयलाल आंजना और महेंद्रजीत सिंह मालवीय को मंत्री पद मिला। इससे पहले गिरिजा व्यास और रघुबीर सिंह मीणा भी मंत्री रह चुके हैं। वहीं, बीजेपी की सरकार में गुलाबचंद कटारिया गृह मंत्री रहे और नंद लाल मीणा को आदिवासी विकास मंत्रालय मिला था। इस बार भी मेवाड़ जीतने के लिए बीजेपी और कांग्रेस ने पूरी ताक़त लगा दी है। राजस्थान के पिछले चुनावों के आँकड़े भी इसी ओर इशारा भी करते हैं।
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बीजेपी ने 2013 में 28 सीटों में से 25,अपने खाते में कर सरकार बनाई थी। इनमें कांग्रेस ने दो सीटें जीतीं, इससे पहले 2008 में कांग्रेस ने जीत दर्ज करवाई,कांग्रेस ने 19 और बीजेपी ने 7 सीटें जीती,वहीं 2003 में परिसीमन से पहले 25 सीटों में से 18 बीजेपी और 5 कांग्रेस को मिलीं। हालाँकि, साल 2018 के नतीजे कुछ अलग रहे थे। तब बीजेपी ने 15 और कांग्रेस ने 10 सीटें जीती थीं लेकिन सरकार कांग्रेस की बनी थी। इस अपवाद के साथ राजस्थान की राजनीति को समझने वालों का कहना है कि पिछले आँकड़ों और मेवाड़ के भावनात्मक महत्व को देखें,तो इस सियासी कहावत से इनकार नहीं किया जा सकता।
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राजनीतिक विश्लेषकों का मानना हैं, कि ‘मेवाड़ सत्ता का द्वार कहलाता है और आज से नहीं बरसों से लेकिन,पहली बार ऐसा हुआ कि बीजेपी ने मेवाड़ को जीता और सत्ता तक नहीं पहुँच पाई। मिथक कभी बनते हैं, कभी टूटते हैं लेकिन शाश्वत तौर पर जो चीज़ चल रही है वो लोगों के ज़ेहन में रहता है।’ शायद इसलिए सीएम गहलोत के इतने दौरे यहाँ पर हुए हैं,केंद्र के जितने नेता, मंत्री आ सकते थे, यहाँ आ रहे हैं। वैसे तो कुल 200 में से यहाँ सिर्फ़ 28 सीटे हैं लेकिन इनका प्रभाव चाहे वो किसी लहर में हो, जातीय हो या भावनात्मक हो, अन्य सीटों पर भी पड़ता है।
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’’फ़िलहाल राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस हरसंभव तरीक़े से जनता का समर्थन पाना चाहते हैं। इसी कोशिश में अशोक गहलोत सरकार ने मुफत जैसी योजनाओं की घोषणा। सरकार का रिपिट करने का दांव खेला है। वहीं, बीजेपी ने अपनी दूसरी ‘परिवर्तन यात्रा’ की शुरुआत बाँसवाड़ा से की जो मेवाड़ की लगभग सभी सीटों से होकर निकली। खेर किसी चुनाव में कई फ़ैक्टर काम करते हैं और मेवाड़ में जातीय समीकरण भी काफ़ी मायने रखते हैं। ये इलाक़ा दो हिस्सों में बँटा है- एक आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र और अन्य में अलग-अलग जातियों की मिलीजुली संख्या है। प्रमुख तौर पर यहाँ राजपूत, ब्राह्मण, जाट, माहेश्वरी, गुर्जर और अनुसूचित जातियाँ मिलती हैं। जाट और गुर्जर यहां ओबीसी में आते हैं। जानकारों के मुताबिक़ उदयपुर सिटी ब्राह्मण और जैन बाहुल्य सीट है। वहीं, चित्तौड़गढ़ और वल्लभनगर में राजपूत बहुल सीट होने के कारण बीजेपी का वर्चस्व है। भीलवाड़ा के मांडल में गुर्जरों की आबादी अधिक है जबकि आसींद के लिए कहा जाता है कि जीत के लिए गुर्जर और ब्राह्मण दोनों की ज़रूरत पड़ती है।
इसी तरह कुंभलगढ़ में राजपूत और माहेश्वरी उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं वहीं, नाथद्वार में अधिकतर ब्राह्मण और जैन प्रत्याशी की जीत हुई है। मेवाड़ की राजनीति पर नज़र रखने वाले बताते है कि‘‘बाँसवाड़ा और डुंगरपुर की आदिवासी बेल्ट में आदिवासी वोट ही जीत-हार तय करते हैं। बाक़ी सीटों पर अलग-अलग समीकरण साधने होते हैं। राजनीतिक दल इनका समर्थन हासिल करने की कोशिश करते हैं। बाँसवाड़ा और डुंगरपुर में जहाँ पहले कांग्रेस-बीजेपी के बीच मुक़ाबला होता था अब वहाँ बीटीपी और बीएपी दो नई पार्टियाँ आ गई हैं।
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मेवाड़ में आदिवासी आरक्षित कुल 16 सीटें हैं। भारतीय ट्राइबल पार्टी यानी बीटीपी ने पिछले चुनाव में दो सीटें जीतकर बीजेपी और कांग्रेस के लिए चुनौती खड़ी कर दी थी। हालाँकि, इस बार बीटीपी के दोनों विधायकों ने पार्टी छोड़कर एक नई पार्टी बनाई है- भारतीय आदिवासी पार्टी इससे मुक़ाबला और बढ़ गया है। मेवाड़ में लोगों के अपने मुद्दे हैं और पार्टियों के अपने दावे। लेकिन,जानकार कहते हैं कि मेवाड़ में एकदम से हवा चलती है और वोट खिसक जाता है। मेवाड़ में हर पार्टी फ़िलहाल अपनी हवा बनाने की कोशिश में है। लेकिन, राजस्थान की राजनीति में ख़ास जगह रखने वाले मेवाड़ के किले को कौन भेद पाता है,ये देखना दिलचस्प होगा।