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भाजपा में युग परिवर्तन अचानक नहीं, सुनियोजित मजबूत पटकथा है

डा. उरुक्रम शर्मा
भारतीय जनता पार्टी में क्या नवयुग शुरू हो गया? इसका उत्तर सभी का हां में होगा। लेकिन इस युग की शुरूआत की पटकथा कब लिखी गई, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। नरेन्द्र मोदी की दिल्ली में एंट्री के साथ ही इसकी कहानी लिखने की जिम्मेदारी दे दी गई थी और पार्टी के संस्थापकों व वरिष्ठजनों को किनारे बैठाने की रणनीति भी बना ली गई थी। लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के रहते नरेन्द्र मोदी का सैटअप नहीं हो सकता था। वजह साफ थी कि आडवाणी और जोशी के लोग ही सब राज्यों में बैठे थे। केन्द्रीय संगठन में भी उनका ही बोलबाला था। ऐसे में मोदी की लांचिंग फेल ना हो जाए, इसे ध्यान में रखते हुए संघ ने पटकथा पूरी तैयार कर ली थी। यानी2013 में जब राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली पार्टी ने आडवाणी की जगह नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित करके दौरे करने शुरू करवाए, तब स्पष्ट हो गया था कि आडवाणी व जोशी का, भाजपा ने अध्याय समाप्त कर दिया था। एक डर यह भी सता रहा था कि राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे, रमन सिंह, रवि शंकर प्रसाद, मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन, सुशील मोदी आदि बड़े नेताओं को कैसे मुख्यधारा से अलग करके नई टीम तैयार की जाए? इस पर संघ की टीम ने काम करना शुरू किया। 

 

भाजपा ने कार्यकर्ताओं में जगाया सपना, 2024 में जीत का नया फॉर्मूला

 

2014 में भाजपा को लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला और संघ के दिशा निर्देशों पर सारे दिग्गजों को साइड करके नरेन्द्र मोदी को देश की कमान सौंप दी गई। राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी, रवि शंकर प्रसाद जैसे बड़े नेताओं को मजबूरी में कैबिनेट में जगह दी गई, जबकि आडवाणी और जोशी को मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिया गया। यानी स्पष्ट रूप से संदेशा दे दिया गया कि अब पार्टी युग परिवर्तन की राह पर है। ऐसे में मुख्यधारा में आपका कोई स्थान शेष नहीं है। मोदी के सबसे विश्वासपात्र अमित शाह को पार्टी की कमान सौंप दी गई। शाह और मोदी ने पूरी टीम को खंगाल डाला। धीरे धीरे करके दोनों ने सत्ता व संगठन की पूरी कमान अपने हाथ में ले ली। वरिष्ठ नेताओं को किनारे लगाने का काम शुरू हो गया। केन्द्रीय संगठन के साथ साथ राज्यों में भी कार्यकारिणी पूरी तरह इनकी मर्जी से ही तैयार होने लगी। केन्द्रीय स्तर से राज्यों के संगठन व सत्ता पर बारीकी से नजर रखने का काम भी शुरू हो गया। 2018 तक राजस्थान में वसुंधरा राजे और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह के बराबर कोई नेता नहीं होने के कारण 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में इन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर सामने रखकर चुनाव लड़ा गया। ये बात दूसरी है कि दोनों राज्य ही भाजपा हार गई। हालांकि मध्यप्रदेश में तो कमलनाथ की कांग्रेस सरकार में सेंधमारी करके उसे अल्पमत में लाने का भाजपा ने जबरदस्त खेल किया और शिवराज सिंह को कमान सौंप दी। राजस्थान में भी मध्यप्रदेश वाला फार्मूला लागू करने की पूरी तैयारी की, लेकिन अशोक गहलोत ने उसे सफल नहीं होने दिया। 

राजस्थान से वसुंधरा राजे कालखंड को उसी समय लिखकर लागू करने का काम शुरू कर दिया गया था। यहां तक कि प्रतिपक्ष का नेता भी उन्हें नहीं बनाया गया। वसुंंधरा राजस्थान में काफी लोकप्रिय नेता आज भी हैं, लेकिन संगठन की लिखी पटकथा के तहत राजस्थान इकाई ने काम शुरू कर दिया था। वसुंधरा को किसी भी तरह से तवज्जो देना बंद कर दिया गया। पार्टी कार्यालय तक के होर्डिंग्स व पोस्टर्स से उनकी तस्वीर तक को गायब कर दिया गया। राजस्थान में पांच साल में हुए उपचुनाव में उन्हें प्रचार से दूर रखा गया और प्रचार सामग्री तक से उनके फोटो हटा दिए गए। इन सबमें भाजपा को करारी हार का सामना भी करना पड़ा। प्रदेश संगठन की कमान तब तक सतीश पूनिया को सौंपी जा चुकी थी। गुलाबचंद कटारिया को राज्यपाल बनाने के बाद प्रतिपक्ष का नेता भी वसुंधरा के धुर विरोधी राजेन्द्र राठौड को सौंप दिया गया था। 

2023 के विधानसभा चुनाव  में वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह को पूरी तरह आईना दिखा दिया गया। किसी भी चुनाव समिति या चुनाव की रणनीति में उन्हें शामिल नहीं किया गया। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रोजेक्ट नहीं किया गया। तीनों हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल की, लेकिन इन तीनों नेताओं के युग को पूरी तरह से अलविदा कह दिया गया। कहने को कहा जा रहा है कि इनके अनुभवों का फायदा अब केन्द्र में लिया जाएगा, ताकि और मजबूती से केन्द्र की सरकार व संगठन काम कर सके। यह तो बहलाने वाली बात है। जब कोई कार्य योजना के तहत किया जा रहा है और उसमें सफलता मिल गई तो स्पष्ट है कि बीता हुआ समय और लोग वापस नहीं आते हैं। कमोबेश इन तीनों समेत तमाम आडवाणी काल के नेताओं को तो फिर आजमाने का अवसर मिलने की संभावना क्षीण हो चुकी। वैसे पुराने चावलों को कभी हल्का नहीं समझना चाहिए। सबका समय समान नहीं होता है। आज अच्छे दिन हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वह स्थायी है। जिन नेताओं को साइड किया गया है, ये वो ही हैं, जिन्होंने पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाने का काम किया है। जब फल खाने का समय आया तो इन्हें नेपथ्य में बिठा दिया गया। इन्हें तो दरकिनार किया जा सकता है, लेकिन इनके राजनीतिक अनुभव, कौशल व रणनीति को नहीं, पता नहीं कब रायता फैल जाए।

Ambika Sharma

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