डॉ. उरुक्रम शर्मा
जयपुर। भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में उम्मीदों के अनुसार परिणाम क्यों नहीं ला सकी? इसका प्रदेश स्तर पर मंथन कर रही है। कारण तो तलाश रही है, लेकिन वो कारण क्यों पैदा हुए, उस ओर भाजपा का ध्यान ही नहीं है। सब नेता ऐसे कारण गिना रहे हैं, जिससे उनके बदन पर दाग ना लगें। कारण भी वो ही गिना रहे हैं, जिन्होंने टिकट बंटवारे में विशेष भूमिका निभाई। पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार 63 सीटों का कैसे नुकसान हुआ? इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कोई अभी तक आगे नहीं आया, जिससे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ सके। उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा वो राज्य हैं, जहां भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। हार की नैतिक जिम्मेदारी महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने लेते हुए इस्तीफे की पेशकश जरूर की है, लेकिन स्वीकारा नहीं गया। राजस्थान में केन्द्रीय मंत्री डा. किरोड़ीलाल मीणा ने भी नैतिक आधार पर इस्तीफा दिया है। दोनों ही अपने अपने राज्य में जन नेता हैं। इनके अलावा किसी के प्रदेश के अध्यक्ष व उनके राज्य प्रभारियों ने हार का सेहरा खुद के बंधवाने से अब तक परहेज किया है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा तक ने पहल नहीं की, ना ही पुअर परफोरमेंस के लिए पार्टी पद छोड़ा।
हाल ही राजस्थान और उत्तरप्रदेश की प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की वृहद बैठक हुई। जयपुर में हुई बैठक में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कम सीटें मिलने का प्रमुख कारण विदेशी ताकतों को प्रमुख बताया, वहीं उत्तरप्रदेश की बैठक में इसी कारण को विशेष तरजीह दी गई। सब विदेशी ताकतों के माथे तो ठीकरा फोड रहे हैं, लेकिन कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि किस देश ने भारत के चुनाव को प्रभावित करने का काम किया। भाजपा के पास यह तथ्य कहां से आया कि विदेशी ताकतों का चुनाव में इनवाल्वमेंट था। यदि इस तथ्य की जानकारी थी तो इसे रोका क्यों नहीं गया? जबकि केन्द्र में भाजपा की ही सरकार थी। कहीं इस तरह की बात करके कार्यकर्ताओं को भ्रमित तो नहीं करना है?
दूसरे कारणों में बात सामने आई कि दूसरे दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भरने के लिए मूल कार्यकर्ता की उपेक्षा की गई। बाहर से आने वालों को बहुत ज्यादा तवज्जो दी गई। इससे कार्यकर्ताओं ने दिल लगाकर चुनाव में काम नहीं किया। यहां तक की बूथ लेवल तक की जिम्मेदारी का निर्वहन सिर्फ दिखावे के तौर पर किया। पार्टी के बड़े नेताओं ने कार्यकर्ताओं में अति आत्मविश्वास पैदा कर दिया। सरकार तो मोदी की ही बनेगी। वो भी 370 सीटों के साथ। अब कार्यकर्ता ने भी सोच लिया, जब सरकार बन ही रही है तो मेहनत क्यों करनी है? सबसे बड़ा नुकसान भाजपा को इस बार 400 पार का नारा देना हुआ, जो चुनाव प्रचार समाप्त होने तक गले की फांस बना रहा। इसी बीच भाजपा के कुछ नेताओं ने कहा कि 400 पार करेंगे तभी संविधान में संशोधन हो पाएगा। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने इसे पकड़ लिया। संविधान की कापी लेकर हर सभा में कहा कि भाजपा सत्ता में आई तो संविधान बदला जाएगा, मतलब यह है कि आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा। इसका जबरदस्त असर देखने को मिला। राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश में सीटें घटने का सबसे बड़ा कारण यही रहा। इसे कोई भाजपा का नेता किसी समीक्षा बैठक में अब तक स्वीकार नहीं कर रहा है।
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मोदी की गारंटी को लोगों ने अहंकार के रूप में देखा। मोदी ने पूरे चुनाव में सिर्फ खुद को आगे रखा और हर जगह यह मोदी की गारंटी है। इससे स्थानीय स्तर के कद्दावर नेताओं को लगा कि उन्होंने बरसों की मेहनत से प्रदेशों में पार्टी का जनाधार खड़ा किया है, उसे कोई महत्व ही नहीं दिया जा रहा है। जो कुछ किया, सिर्फ मोदी ने किया? मोदी की गारंटी के आगे प्रदेशों के स्थानीय जनाधार वाले नेताओं को दूध में से मख्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया। स्थानीय नेताओं के समर्थकों को अपने नेता की अवहेलना बर्दाश्त नहीं हुई और स्पष्ट बहुमत से काफी दूर भाजपा को रोक दिया। राजस्थान में भाजपा को पिछले दो लोकसभा चुनाव में 25 में से 25 सीटें हासिल हुई थी। उस समय वसुंधरा राजे के हाथों में कमान थी। इस चुनाव में वसुंधरा को पूरी तरह से अलग रखा गया। वसुंधरा ने भी झालावाड़ के अलावा कहीं प्रचार का जिम्मा नहीं संभाला। मोदी और दूसरे बड़े नेताओं की सभाओं में भी मंच पर वसुंधरा को मान नहीं दिया गया। परिणाम भाजपा 14 सीटों पर ही राजस्थान में सिमट कर रह गई। राजस्थान के सीकर व झुंझुनूं प्रत्याशी ने तो साफ तौर पर वसुंधरा को प्रचार से दूर रखना, हार का प्रमुख कारण रहा है।
हार के कारणों में यह नहीं खोजा जा रहा है कि आखिर टिकट वितरण में कहां चूक हुई? कौन है इसके जिम्मेदार? टिकट में मूल कार्यकर्ता के स्थान पर दूसरे दलों से आए नेताओं को तरजीह दी गई। राजस्थान के बांसवाड़ा में कांग्रेस से आए महेन्द्र जीत मालवीय को लोकसभा चुनाव में टिकट दिया गया। कार्यकर्ता इतने नाराज हुए कि मालवीय को पूरी तरह से निपटा दिया। एक साल पहले बनी पार्टी ने बांसवाडा में झंडा गाड दिया और भाजपा देखती रही। प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी अपनी चित्तौड़गढ़ सीट से बाहर ही नहीं निकल पाए। चूरू में राजेन्द्र राठौड़ ने मौजूदा सांसद राहुल कस्वा का टिकट कटवाया। कस्वां ने कांग्रेस ज्वाइन करके चुनाव जीत लिया। लेकिन इसका असर पूरा शेखावटी भाजपा के हाथ से सरक गया।
उत्तरप्रदेश में अयोध्या सीट उचित कैंडिडेट नहीं उतारने के कारण हाथ से गई तो सबसे हाट सीट मुजफ्फनगर सोम भारती और संजीव बलियान की आपसी लड़ाई के कारण हाथ से फिसल गई। उत्तरप्रदेश में जिस तरह की करारी हार का सामना करना पड़ा है, वो तो भाजपा नेताओं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। महाराष्ट्र में शिव सेना में तोड़फोड को मराठा वोटर्स ने गंभीरता से लिया और शिंदे की शिवसेना को दिन में तारे दिखा दिया। हरियाणा में 10 में से सिर्फ पांच सीटों पर संतोष करना पड़ा। जाट वोटों की नाराजगी को भाजपा अति आत्मविश्वास में भांप ही नहीं पाए। अब इसी साल महाराष्ट्र, झारखंड़, जम्मू कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव है। भाजपा के लिए यह चुनाव करो या मरो का है। अभी महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा नीत सरकार है। इनमें सरकार नहीं बनती है तो किरकिरी तो होगी ही साथ ही राज्यसभा की सीटों पर भी नुकसान होगा। जिससे भाजपा को अपने दम पर राज्यसभा को किसी भी कानून को पास कराने में दिक्कत होगी। अभी भाजपा के पास राज्यसभा में 86 सीटें हैं तो कि बहुमत से 13 कम है। ओडिशा की तरह ही झारखंड जीते तो फायदे में रहेंगे, साथ ही जम्मू कश्मीर में भी झंड़ा गाडने से विपक्ष के मंसूबों पर पानी फेरा जा सकेगा।
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