- राजनीति से मठाधीशों का दौर खत्म
- हर किसी के लिए दरवाजे खोले
- दरकिनार किए गए कद्दावर नेताओं को लोकसभा चुनाव में मिलेगी तरजीह
- राज्यपाल बनाकर उनके राजनीतिक जीवन को होगा पटाक्षेप
डॉ. उरुक्रम शर्मा
भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान समेत तीन राज्यों में नए युग की शुरूआत कर दी। कार्यकर्ताओं के मन में एक विश्वास जगा दिया कि हर किसी पर संगठन की निगाहें हैं, कब, किसका नंबर आ जाए। कब कौन मंत्री, मुख्यमंत्री, आयोग के अध्यक्ष या किसी भी जगह सम्मान पा सकें। राजस्थान में भजनलाल को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने ऐसा ही संदेशा दिया है, साथ ही 2024 के लोकसभा चुनाव में किसे टिकट मिल जाए, उसका भी रास्ता खोल दिया है। अब राजनीति में मठाधीशों का दौर लगभग खत्म हो चुका है, जो कि पिछले 75 साल से देश की राजनीति और राजनीतिक दलों को जकड़ा हुआ था।
वैसे तो भारतीय जनता पार्टी ने इसकी शुरूआत नौ साल पहले ही कर दी थी। शुरूआत भी देश की आर्थिक राजधानी मुंबई महाराष्ट्र से 2014 की थी। महाराष्ट्र की राजनीति में नितिन गडकरी और एकनाथ खडसे बड़े नेता के रूप में जाने जाते थे। माना जाता था कि दोनों में से ही किसी एक को वहां की अगली सत्ता मिलेगी। खडसे ने तो बाकायदा इसी तरह से प्रचार भी किया था। चुनाव जब हुए तो हुआ सब कुछ चौंकाने वाला। वहां सत्ता सौंपी गई देवेन्द्र फडणवीस को। देवेन्द्र बिल्कुल नया चेहरा सामने आया और गडकरी व खडसे ने सोचा भी नहीं था कि उन्हें इस तरह सत्ता की मुख्य धुरी से अलग किया जाएगा। भाजपा की सत्ता बनी तो खड़से तो मंत्री तो बनाया, लेकिन दो साल बाद ही उन्होंने एनसीपी का दामन थाम लिया। गडकरी को महाराष्ट्र की राजनीति से अलग कर केन्द्र की राजनीति में एंट्री करा दी।
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हरियाणा में इसी फार्मूले को अपनाया गया। वहां किसी ने सोचा भी नहीं था कि मनोहर लाल खट्टर की ताजपोशी हो जाएगी, वो भी चुनाव लड़े। हरियाणा के बारे में कहा जाता है कि मुख्यमंत्री जाट लाबी से ही बनेगा, क्योंकि वहां इसी का वर्चस्व है। वहां के प्रदेशाध्यक्ष रामविलास शर्मा और कैप्टेन अभिमन्यु सिंह को मुख्यमंत्री पद का बड़ा दावेदार माना जा रहा था, लेकिन पार्टी ने जाट की जगह पंजाबी कम्युनिटी के खट्टर को प्रदेश की चाबी सौंप दी। खट्टर को आरएसएस की नजदीकियों का फायदा मिला। हालांकि शर्मा और अभिमन्यु को विज के साथ मंत्री बनाया गया। 2019 के चुनाव में विज को छोड़कर दोनों हार गए। खट्टर को फिर सीएम बनाया गया और विज को भी मंत्री।
गुजरात में तो तीन मुख्यमंत्री बदले गए। बनाया भी उन्हें गया, जिन्हें उम्मीद नहीं थी, उनका नंबर आया, जो शांत बैठे थे। नरेन्द्र मोदी के मई 2014 में गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। सवा दो साल तक उन्होंने यह जिम्मेदारी संभाली और 75 साल की उम्र होने पर उन्होंने नमस्कार कर ली। ऐसे समय में नितिन पटेल को मुख्यमंत्री बनने की पूरी उम्मीद थी। उन्होंने तैयारी भी कर ली थी। घर में पूजा हो गई थी और मीडिया के सामने बतौर मुख्यमंत्री की ताजपोशी से पहले बातचीत की जाने वाली थी। इसी बीच सब कुछ गड़बड़ हो गया और नितिन पटेल की जगह विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री बनाकर चौंका दिया गया। पांच साल विजय रूपाणी के शासन के बाद विधायकों में असंतोष पनप गया। इस बार भी नितिन पटेल ही दौड़ में सबसे आगे थे, लेकिन हुआ इसके विपरीत। भूपेन्द्र पटेल को 2021 में बागडोर संभला दी गई।
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मध्यप्रदेश में किसी ने सोचा भी नहीं था कि शिवराज सिंह चौहान की विदाई इस तरह होगी, जबकि वो पिछले 20 साल से लगातार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। 2023 के विधानसभा चुनाव में उन्हें सीएम प्रोजेक्ट किए बगैर भाजपा ने चुनाव लड़ा। भारी बहुमत से जीत भी हासिल की। शिवराज को पूरी उम्मीद थी कि उन्हें ही फिर मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन उनके सपने पूरे नहीं हो सके। भाजपा ने डाक्टर मोहन यादव पर दांव खेल दिया। यादव पहले एक बार विधायक रह चुके थे। किसी को उम्मीद नहीं थी कि यादव का नंबर भी आ सकता है। वैसे मध्यप्रदेश में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र तोमर व प्रहलाद पटेल को विधानसभा चुनाव लड़वाया था। दोनों ने जीतने के बाद लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दिया। प्रदेश में माना जा रहा था कि दोनों में से किसी एक को मौका दिया जाएगा। हालांकि कैलाश विजयवर्गीय भी दौड़ में बने हुए थे। तोमर को विधानसभा अध्यक्ष बनाकर बांध दिया गया। पटेल और विजयवर्गीय को अब मंत्रीमंडल में आने को इंतजार है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी विष्णु देव साय का नाम सुनकर सब भौचक्के रह गए। रमन सिंह मुख्यमंत्री की दौड़ में सबसे आगे बने हुए थे, परन्तु उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाकर संतुष्ट किया गया।
राजस्थान में वसुंधरा राजे प्रदेश की सबसे कद्दावर नेता मानी जाती है। दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी। इस बार पार्टी ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ वाला फार्मूला यहां भी लागू किया। कमल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडा गया। वसुंधरा ने अंतिम समय तक मुख्यमंत्री की दौड़ लगाई। इस दौड़ में केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह, अर्जुनराम मेघवाल भी थे। किसी का नंबर नहीं आया और पहली बार चुनाव लड़कर जीतने वाले भजनलाल को राजस्थान का नया मुख्यमंत्री बना दिया गया।
हालांकि बिना सीएम फेस के कर्नाटक, पंजाब और हिमाचल प्रदेश का चुनाव भी लड़ा गया। तीनों ही राज्यों में भाजपा का यह फार्मूला फेल हो गया। पंजाब में बहुत बुरी स्थिति रही। कर्नाटक व हिमाचल में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
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सवाल यह है कि इस तरह से भाजपा वरिष्ठ व अनुभवी नेताओं को मुख्यधारा से अलग करके क्या प्रदेशों की सत्ता की चाबी दिल्ली अपने हाथों में रखना चाहती है? क्या प्रदेश की सरकारें रिमोट से चलेगी? क्या दिल्ली जो तय करेगा, उसी हिसाब से राज्यों के मुख्यमंत्री काम करेंगे? क्या ब्यूरोक्रेसी पर नियंत्रण रखने के लिए भी किसे कहां, लगाया जाएगा, यह भी दिल्ली तय करेगी। भाजपा ने एक तरह से यह जुआं खेला है, जो कुछ राज्यों में सफल रहा तो कुछ राज्यों में मुंह की खानी पड़ी है। लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा फिर सत्ता में आने के ख्वाब संजोए बैठी है। क्या ख्वाब पूरे होंगे? क्या मुख्य धारा से अलग किए गए नेताओं को लोकसभा चुनाव में मौका देकर केन्द्र की राजनीति में मौका देकर संतुष्ट किया जाएगा? या फिर राज्यपाल बनाकर उनकी पारी को घोषित किया जाएगा?