डा. उरुक्रम शर्मा
संस्कृति, संस्कार औऱ नैतिक शिक्षा को वर्तमान शिक्षा पद्दति से बाहर करने के कारण जो दृश्य औऱ हालात उत्पन्न हुए हैं, वे किसी से छिपे हुए नहीं हैं। वर्तमान पीढ़ी को अपने से बड़ों का आदर सम्मान करने का सलीका नहीं? अपने से बड़ों के सामने क्या करना है औऱ क्या नहीं, इसका ज्ञान नहीं। जो नहीं करना चाहिए बड़ों के सामने, वो ही वो करते हैं औऱ इसे स्टेट्स की संज्ञा देते हैं।
माता-पिता की बात का अनुसरण करने की तो इस पीढ़ी से अपेक्षा करना बेमानी है। इसके लिए इन्हें ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, इसके लिए माता पिता भी बराबर के दोषी हैं। वो पाश्चात्य संस्कृति की ओऱ बढ़ती संतान की तारीफ करने से नहीं चूकते। उन्हें नीति विरुद्ध किसी कार्य के लिए नहीं ठोकते। मैं व्यक्तिगत रूप से बच्चों की आजादी का पक्षधर हूं, लेकिन आजादी एक सीमा तक। बच्चों का देर रात तक घर में लौटना, रेव पार्टियों में शिरकत करना, हुक्का बार में जाना, स्कूल टाइम में ही बीयर का सेवन शुरू करना आदि आदि। इन सबको नहीं करने के लिए कभी टोक दिया गया तो जिस तरह से माता पिता को बेइज्जत किया जाता है, देखने वाले भी शर्मसार हो जाते हैं।
कम कपड़े पहनकर अंग प्रदर्शन करना, भारतीय संस्कृति के खिलाफ है औऱ संभवतया ज्यादातर लोग इसके समर्थक भी हैं। इसको लेकर तर्क दिया जाता है कि क्या पहने औऱ क्या नहीं, यह हमारी मर्जी है। जरूर है कि लेकिन इनके कारण मजाक का पात्र बनें, यह कहां तक न्यायसंगत है। लड़के भी इसका समर्थन करते हैं, लेकिन जब शादी की बात आती है तो संस्कारित पत्नी की अपेक्षा करते हैं। तब कहां सोच बदल जाती है। आप खुद अपने आसपास ही नजर डाल लीजिए, सचाई बयां हो जाएगी।
शुरूआत से ही माता पिता बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार करें, उनके हर सवाल का खुलकर जवाब दें, उन्हें समझें, उन पर थोपे नहीं। बच्चे भी समझें कि माता पिता कभी उनका अहित नहीं चाहते हैं। जब माता पिता बच्चों से खुलते नहीं हैं तो वे अपने मन के अंतर्द्वंदों को तलाशने के लिए दूसरों का सहारा लेते हैं, खुद में समझ नहीं होती है, तो जो जैसा कह रहा है, उसे सच मान लेते हैं। ज्यादातर मामलों में बाहरी लोगों से सलाह मशविरा करने वाले बच्चे पथ भ्रमित हो जाते हैं। जब समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हकीकत यह है कि आज माता पिता दोनों नौकरीपेशा हैं। कमाने के चक्कर में बच्चों को उनके लाड प्यार से हाथ धोना पड़ता है। उनके पास बच्चों से बात करने का वक्त ही नहीं होता है। बच्चे कुछ कहना भी चाहते हैं, तो डर के मारे कुछ कह नहीं पाते हैं। कुंठित हो जाते हैं या अवसाद की तरफ बढ़ जाते हैं।
सवाल यह है कि नैतिक व संस्कार युक्त शिक्षा को कोर्स से विमुख करने के पीछे कौनसी सोची समझी चाल थी? क्यों इसे हटाया गया? इसके बिना कोई योग्य संतान, योग्य माता पिता औऱ योग्य नागरिक कैसे बन सकता है। छोटी छोटी कहानियों से जिस तरह के संदेश दिए जाते थे, वो बाल मन में अमिट छाप छोड़ देते थे। जैसे झूठ नहीं बोलना, बड़ों का आदर करना, गुरू को सर्वोपरि मानना, सुबह जल्दी उठना, खेलने के लिए मैदान में जाना, रोज दौड़ना आदि-आदि। आज यह सब लुप्त हो चुके। आवाज उठनी चाहिए देश में। संस्कारित व सुयोग्य नागरिक बनाने के लिए फिर से पहल करनी चाहिए, वरना भारत औऱ पश्चिमी देशों में किसी तरह से कोई फर्क नजर नहीं आएगा।
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