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किसी दूसरे के होठों का प्यासा नहीं

डा.उरुक्रम शर्मा

हमें पता होता है, फिर भी हम वो ही गलती करते हैं और खुद को साहिब समझते हैं। ना सोचते ना समझते और झूठे और थोथले स्टेट्स में अपनी मौलिकता को खो देते हैं। बड़े अदब और रौब से कहते हैं कि एक प्याले की कीमत ही जनाब इतनी है, सुनकर चौंक जाएंगे। हम भी इस चौंकने की चकाचौंध में खोते जा रहे हैं। घर पर भी कीमती से कीमती प्याले रखते हैं, चाहे हमारी बिसात ही नहीं हो। उन प्यालों में हम खुद कुछ नहीं पीते, लेकिन जब मेहमान आता है तो उसके लिए बड़े करीने से ट्रे में सजाकर लाते हैं। क्या सोचते हैं हम। हम उन्हें प्यार परोस रहे हैं या सिर्फ दूसरे की जूठन। हो भी तो यही रहा है। हम महंगी से महंगी होटलों में जाते हैं और उस क्राकरी में खाना खाते हैं, जिसमें ना जाने कितने असाध्य रोगी पहले खाना खा चुके होते हैं। इसके बाद होटल का मुंह मांगा बिल देते हैं और बड़े रौब से वेटर को मोटी टिप देते हैं। उस समय मध्यमवर्गीय अपने आप को हीन समझता है, जब वो टिप नहीं देता या बहुत कम देता है। वेटर भी हमें उसी भाव से देखता है। 

झूठे अधरों को खुद के होठों से लगाकर बड़ा बनते हैं
कुछ हमारे दोस्तों की तो फिक्स होटल और फिक्स टेबल होती है। वेटर भी फिक्स होता है। वो हमारे पहुंचते ही स्माइल देकर वेलकम करता है और मैन्यू सामने रखता है। हम दूसरे दोस्तों के सामने रौब दिखाते हुए उसे उसके नाम से पुकारते हैं और कहते हैं कि मेरे लिए तो वो ही लेते आना, जो हमेशा लाता है, हां सूप भी वो ही लाना। वो ही सूप, वो ही खाना आता है, लेकिन झूठे बर्तनों में, जिन पर कई अधर (होंठ) लगे होते हैं। खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। कैसे दूसरे के अधर लगे बर्तनों में हम खाना खाकर बड़े होने का अहसास करते हैं।

एक प्याला और हकीकत
चाय-काफी की बात ही कुछ और है। दिनभर आफिस में यही तो करते हैं। सीमा, रीना जैसी तमाम खूबसूरत लड़कियों के अधर लगे प्यालों में ही तो चाय पीते हैं। हम सोचते हैं उनके बारे में, मगर चाय है कि हमारी हर बात को समझती है। वो प्याला हमारे मन को पढ़ लेता है। कई बार तो लिपिस्टक लगे कपों में हम चाय पीकर शर्तें लगाते हैं कि यह तो रीना का, यह तो सीमा का, यह तो रश्मि का है। क्या यही हमारी स्थिति हो गई कि हम विदेशी मर्तबानों में देशी झूठे अधरों के लायक हो गए। हम उन प्यालों को धोते हैं और फिर दूसरे को परोस देते हैं।

मुझे मेरी माटी में दफन कर दो
मैं तो मिट्टी के बने उसे सकोरे (मिट्टी का प्याला)का शौकिन हूं, जिसे पहली बार खुद अपने अधरों से लगाता हूं और खुद ही इस मिट्टी में मिला देता हूं। सोचता हूं दिन में 10 बार ऐसा करूं, ताकि इस तरह के मिट्टी के बर्तन बनाने वाला खुद सोचे, महसूस करे, कितना भाग्यशाली हूं, मेरे बनाए हुए सकोरे कितने किस्मत वाले हैं, जो सिर्फ एक होंठ के प्यासे होते हैं और उसकी प्यास बुझाकर खुद को दफन कर लेते हैं। इंसान को उस कुम्हार के बनाए बर्तन की तरह बन जाना चाहिए, जिसके अधर से एक बार लगे तो उस मिट्टी में ही दफन हो गए। दुबारा उस मिट्टी से बने बर्तन बनेंगे तो उसे आग में तपना होगा, कंचन बनना होगा। यह बात जिस दिन समझ गए मेरी माटी से प्यार हो जाएगा।

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