डा. उरुक्रम शर्मा-
जयपुर। एक मत हो सकता है कि एक देश एक चुनाव निश्चित रूप से देश हित में है, हालांकि जितना आसान इसे लागू होने का समझा जा रहा है, उतना है नहीं। केन्द्र में भाजपा नीत सरकार है और इसे लागू करने के लिए दो तिहाई राज्यों की सहमति जरूरी है, जो कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संभव नजर नहीं आती है। इसे कानून बनाकर लागू किया जाता है तो मामला अदालत में पहुंच कर अटक सकता है। वैसे एक देश एक चुनाव से बार बार चुनावों पर होने वाले अरबों रूपए के खर्च से बचा जा सकेगा, साथ ही बार बार आचार संहिता लागू होने से ठप होने वाले प्रशासनिक कामों से निजात मिलेगी। यह व्यवस्था कोई पहली बार नहीं है। 1952, 1957, 1963, 1967 तक यह व्यवस्था लागू थी, लेकिन समय से पूर्व सरकारों के गिरने से राज्यों में अलग अलग समय चुनाव होने लगे हैं। 1968, 1969 में कई विधानसभाओं को भंग करने और 1970 में लोकसभा को भंंग करने से सारी व्यवस्था बदल गई।
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केन्द्र की एनडीए सरकार इसका प्रबल समर्थन करते हुए इसे लागू करने के पक्ष में है और पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद की अध्यक्षता में इसके लिए समिति का गठन भी कर दिया है। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी ने कहा कि कमेटी गठन से ही यह लागू नहीं होगा, इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया है।
वैसे तो देश में मोदी सरकार आने के बाद से ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की मांग उठने लगी थी। 2015 में लॉ कमीशन ने दोनों चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश करते हुए कहा था कि बार बार चुनावों से धन का बहुत व्यय होता है, प्रशासनिक कार्य ठप हो जाते हैं, इसलिए एक साथ ही चुनाव कराना देश हित में है। 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी राजनीतिक पार्टियोंं की बैठक में इस मसले पर चर्चा की थी। तत्कालीन कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इसका समर्थन करते हुए फायदे गिनाए थे, लेकिन कई राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया था।
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हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2020 में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में वन नेशन, वन इलेक्शन की बात कहकर देश को भविष्य में लागू करने के पुरजोर संकेत दे दिए थे और अब कमेटी के गठन से इसे लागू करने के प्रति केन्द्र ्सरकार की प्रतिबद्धता नजर आने लगी है। विपक्ष कभी नहीं चाहेगा कि ऐसा हो। वो इसका विरोध करेंगे और अगले साल होने वाले लोकसभा और इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को एक नया चुनावी मुद्दा मिल जाएगा। वो जनता से कह सकेंगे कि विपक्ष देश के पैसे बचाने के समर्थन में नहीं है।
एक देश एक चुनाव से अभिप्राय साफ है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ साथ हों, ताकि धन की बर्बादी और विकास की रफ्तार को बार बार ब्रेक नहीं लगे।
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ओडिशा में 2004 के बाद से विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ साथ ही हो रहे हैं, इससे धन की बचत हो रही है और आचार संहिता लगने से विकास की रफ्तार को लगने वाले ब्रेक से मुक्ति मिल रही है। एनडीए के घटक दल इसका समर्थन कर रहे हैं तो विपक्षी दलों के भी अपने अपने तर्क है। उनका साफ कहना है कि लोकसभा और विधानसभा में चुनावी मुद्दे अलग अलग होते हैं। एक साथ चुनाव होने से मुद्दों पर भटकाव होता है। मतदाता के वोट देने के फैसले पर भी असर होता है।
पांच साल में एक बार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होंगे तो सरकारें बेलगाम हो जाएंगी। जवाबदेह नहीं रहेगी। विधानसभा के बाद या पहले लोकसभा के चुनाव होते हैं, तो सरकारों व राजनीतिक दलों पर एक लगाम रहेगी और वो निरंकुश होकर शासन नहीं कर पाएगी।
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यदि लोकसभा समय से पहले भंग कर दी जाती है, तब क्या सारी विधानसभा भी भंग की जाएगी। नहीं तो फिर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग अलग कराने पड़ेंगे। ऐसे में साथ चुनाव कराने का महत्व फिर खत्म हो जाएगा। अभी तक छह बार पांच साल से पहले लोकसभा भंग हो चुकी, एक बार 10 महीने का कार्यकाल बढ़ाया गया।
रामनाथ कोविद भाजपा का दलित चेहरा है, देश के राष्ट्रपति रह चुके हैं। कानून और राजनीति का समग्र ज्ञान रखते हैं। दलित व राष्ट्रपति रह चुकने के कारण विपक्षी दलों का उनके कमेटी अध्यक्ष बनाने पर विरोध के आसार कम नजर आते हैं।
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विषय विशेषज्ञों का कहना है कि वन नेशन वन इलेक्शन के लिए 2018 में विधि आयोग ने संशोधनों के विवरण के साथ पब्लिक नोटिस जारी किया था। आयोग के इस प्रस्ताव से संविधान के अनुच्छेद 328 पर भी असर पड़ेगा। इसके लिए दो तिहाई से ज्यादा राज्यों का अनुमोदन जरूरी होगा। संविधान के अनुच्छेद 368 (2) के अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा राज्यों का अनुमोदन जरूरी है। इससे राज्यों के अधिकार और कार्यक्षेत्र प्रभावित होने के आसार है। ऐसे में इसके लिए सभी राज्यों से इसका अनुमोदन जरूरी हो जाता है। ऐसा नहीं है कि वन नेशन वन इलेक्शन की व्यवस्था होने पर अन्य कानूनों पर फर्क नहीं पड़ेगा। जनप्रतिनिधित्व कानून समेत कई कानूनों पर इसका सीधा असर पड़ेगा और उनमें संशोधन करना भी जरूरी हो जाएगा।
अलबत्ता वन नेशन वन इलेक्शन का जिन्न तो बाहर आ चुका। केन्द्र सरकार इसे किस तरह लागू करती है और किस तरह से जनता के बीच खुदकर लेकर जाती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा परन्तु विपक्ष को उलझाने के लिए मजबूत पासा जरूर माना जा रहा है। 18 सिंतबर से संसद का विशेष सत्र आहूत किया जा रहा है। इससे समान नागरिक संहिता कानून लाए जाने की पूरी संभावना है। यह भी एक तरह से विपक्ष के विरोध का कारण बनेगा, लेकिन भाजपा के लिए यह वोटों के ध्रुवीकरण का बड़ा हथियार माना जाएगा, जिसका सीधा लाभ भाजपा अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और 2023 में होने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में उठाने की कोशिश करेगी।
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