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आदिवासी आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका

प्रकाश चंद्र शर्मा
स्वतंत्र लेखक

 

पूरे विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा 09 अगस्त को ‘‘विश्व आदिवासी दिवस‘‘ का आयोजन किया जा रहा है। इस बार विश्व आदिवासी दिवस 2023 की थीम- "पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसार में आदिवासी महिलाओं की भूमिका" रखी गई है। वैश्विक दृष्टि से देखें तो संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 1830 के दशक में कनाड़ा में मूल निवासियों के बच्चों को उनकी संस्कृति से दूर कर उन्हे गोरों की संस्कृति वाली मुख्य धारा में शामिल करने अर्थात मूल आबादी को सभ्य बनाने की मुहिम के तहत अपने परिवार से दूर इन रेसिडेंशियल स्कूलों में रखा गया था। अब इन बच्चों के शारिरिक, मानसिक व यौन शोषण के हजारों मामले सामने आये हैं।

इस समय आदिवासी बच्चों को सभ्य बनाने के नाम पर जुर्म, कब्रों और कंकालो की गवाही से आदिवासी समुदाय आहत है। वही भारतीय संदर्भ में देखने पर एक आदिवासी महिला को देश के सर्वोच्च महामहिम राष्ट्रपति के पद पर निर्वाचन से आदिवासी समुदाय में खुशी का माहौल हैं वहीं आदिवासी बच्चियों को खरीदने व बेचने की खबरे भी समाचार पत्रों में छप रही हैं। इस तरह के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाना महत्वपूर्ण हैं। यह इसलिए ओर भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व आदिवासी दिवस की विषयवस्तु थीम ‘‘आदिवासियों के पारम्परिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में स्वदेशी महिलाओं की भूमिका‘‘ घोषित किया हो।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर ज्ञात होता है कि बिरसा मुंडा के आंदोलन में गया मुंडा की पत्नी माकी उसकी दो पुत्रवधुओं एवं तीन पुत्रियों नें 6 जनवरी 1900 को एटेकेडीह में डिप्टी कमिश्नर से मुठभेड़ में सक्रिय रूप से भाग लिया, बाद में न्यायालय ने माकी को दो वर्ष का कठोर कारावास तथा गया मुंडा की पुत्रियों एवं पुत्रवधुओं को, जो जेल में तीन महीने से अधिक का समय काट चुकी थी, अनुकंपा के आधार पर केवल एक दिन के कठोर कारावास की सजा सुनाई। पूर्वोत्तर भारत में रानी गैन्डिन्ल्यू नें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजो के जुल्मों की शिकार बनी।

राजस्थान के डूंगरपुर रियासत की दमनकारी नीति का विरोध करने पर रास्तापाल की काली बाई भील को रियासती सेना द्वारा 6 जून 1947 को गोलियों से भून डाला। इस प्रकार अनेक आदिवासी महिलाओं ने अंग्रेजों एवं देशी रियासतो के विरूद्ध आजादी की लड़ाई में अपने प्राणो की आहुति दी। सदियों से आदिवासी जल, जंगल, जमीन के रक्षक रहे हैं। आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और लूट का सिलसिला ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन से ही शुरू हो गया था। यह दोहन और लूट सिर्फ प्रकृति तक ही सीमित नही रही बल्कि गैर-आदिवासी विश्व की खराब नजरे आदिवासी समुदाय के पुरूष, महिलाओं और बच्चों पर भी रही। प्राकृतिक संसाधनों की तरह ही आदिवासी समुदाय गुलामी के लिए, मजदूरी के लिए, दैहिक भूख मिटाने के लिए गैर-आदिवासियों के लिए उपभोग की वस्तु एवं संसाधन रहे हैं। मजदूरों की आवश्यकता महसूस की गई तो गैर-आदिवासियों ने प्रलोभन के सभी तरीके अपनायें। इस भयावह स्थिति को निम्न ‘‘उरांव गीत‘‘ में वर्णित किया गया हैः-

सब थाना जाना, मगर सिसई थाना मत जाना,
हाय! वहां लड़कियों को भगा ले जाते हैं।
एक अन्य ‘‘हो‘‘ गीत में उस दिकू संस्कृति के प्रसार का चित्रण है, जिससे आदिवासी विश्व आक्रांत हैं और उससे बचने के लिए दूरी बनाये रखने का प्रयास कर रहा हैंः
कालकता कोयते, सोआन साबोन, 
रॉंची कोयते दिरींग नाकी,
दिकु दिसुम सोहानाह,
जोका नूठान मेह।। कों।
मांया रेदो बांगाली धोती, 
काय रेदो सायोब जूता।
येना मेनतेह जूड़ीं 
जोका नूसान मेह।। कां।।

इस गीत में युवती एक नौजवान से कहती है कि तुम कलकत्ता गये थे और वहां से सुगंधित साबुन लेकर आये हो। तुम सुगंधित साबुन से बाल धोते हो। तुम रांची शहर से लाये कंघी से अपने बाल संवारते हो तुम जिस साबुन और कंघी का उपयोग कर रहे हो, उसमें तुम दिकु की तरह लग रहे हो, इसलिए तुम मुझसे दूर ही रहो। इस अस्वीकार के बावजूद प्रलोभन इतने ज्यादा मात्रा में दिये जाते थे कि भोले भाले लोग विवश होकर दिकुओ के शिकार हो ही जाते थे। संसाधनों को इस तरह से लूटा गया कि लोग विवश होकर पलायन करने लगे। अकाल, दमन, विस्थापन और पलायन से आदिवासी समाज छिन्न-भिन्न हो गया। प्रस्तुत खड़िया गीत में एक स्त्री दूसरी स्त्री को ढांढ़स बँधाते हुए कह रही हैः

अमाः केन्डोर चोलकी टापू राइज
हरे कोन्सेल हाल जो उम डाङते
चिठी लिखय कुलम/पतर लिखय कुलम हारे दैया हाल उम डेलता।

(तुम्हारा मर्द गया अंडमान
हाय रे और खबर भी नहीं भेजता
चिट्ठी लिखो भाई/सन्देशा भेजो बहिन
हाय रे दैया कोई खबर नहीं आता।)

आदिवासी स्त्री की पृष्ठभूमि भिन्न तरह की है जो आदिवासी दर्शन एवं समानता पर आधारित है इसका मूल स्त्रौत प्रकृति है। यहां प्राकृतिक भेदभाव के अलावा इंसान अथवा किसी सत्ता द्वारा कृत्रिम रूप से थोपा हुआ कोई दूसरा भेद नहीं है। यद्यपि कुछ सीमाऐं यहाँ भी हैं, परन्तु सामन्ती शोषण और धार्मिक आडम्बरों से आदिवासी स्त्री स्वतंत्र हैं। आदिवासी समाज में पुरूष-सत्ता नहीं होने से स्त्रीवाद भी नहीं है। इसीलिए आदिवासी स्त्री की संवेदना-वेदना, चिन्ता, सौन्दर्यबोध और भौतिक संसार को सामने लाने का प्रयास जरूरी है। वरिष्ठ कवयित्री ग्रेस कुजूर की कविता की पंक्तियाँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैंः

और अगर-
अब भी तुम्हारे हाथों की
अँगुलियाँ थरथराईं,
तो जान लो
मैं बनूँगी एक बार और
‘सिनगी दई’
बाँधूँगी फेटा
और कसूँगी फिर से
बेतरा की गाँठ
और होगा
झारखंड में 
फिर एक बार 
एक जबरदस्त जनी शिकार।

सरिता की तरह चंचल, सरोवर की तरह गम्भीर, घर के बीचोंबीच खड़ा मजबूत धरना या कि आर्थिक-सांस्कृतिक पौष्टिकता लिये महुआ-सी, महिलाए अपने समुदाय की रीढ़ हैं। आदिवासी स्त्री समाज लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है जिसमें स्त्री स्वयं को सामुदायिक आदिवासी भावना से अभिन्न मानती है। इसके बावजूद भेदभाव पर आधारित भारतीय समाज व साहित्य जो खुद को मुख्य धारा घोषित करता है, वह समानता पर आधारित आदिवासी समाज को मानवता का पाठ पढ़ा रहा है। इस विषय पर ज्योति तिग्गा कहती हैंः

इतना तो तय है
कि सब कुछ के बावजूद
हम जिएंगे जंगली घास बनकर
पनपेंगे, खिलेंगे जंगली फूलो-सा
हर कहीं, सब ओर
मुर्झाने, सूख जाने, रौंदे जाने
कुचले जाने, मसले जाने पर भी
बार-बार, मचलती हैं कहीं
खिलते रहने और पनपने की कोई जिद्दी-सी धुन।।

आदिवासी महिलायें जो संघर्षरत एवं अध्ययनरत हैं वे सब आदिवासी समाज के वर्तमान एवं भविष्य में आने वाली चुनौतियों एवं सभी संकटों से चिन्तित हैं, क्योंकि उनको मालूम हैं कि बाह्य विश्व का कोई भी हमला सबसे ज्यादा बच्चों एवं महिलाओं को ही प्रभावित करता है। कोविड-19 के परिणामों ने भी इस बात को प्रमाणित किया है।

सामाजिक, शैक्षणिक, साहित्य एवं राजनीतिक दृष्टि से आदिवासी परम्परा का निर्वहन करनें में अनेक महिलायें सृजनशील हैं। सुषमा असुर ने ‘‘असुर सिंरिंग‘‘ नाम से असुर साहित्य की प्रथम पुस्तक लिखी। दमयंती सिंकू ‘‘हो‘‘ भाषा साहित्य के अध्यापन का कार्य कर रहीं हैं, ‘‘हो हिन्दी शब्द कोष‘‘ और ‘‘सिंहभूम के शहीद लड़ाका‘‘ आपके प्रमुख प्रकाशन हैं। लेखन के अलावा नृत्य गीत एवं संगीत में भी आपकी गहरी रूची है।

झारखण्ड आंदोलन की राजनीतिक पत्रिका ‘‘झारखण्ड खबर‘‘ की उप संपादक डॉ. वंदना टेटे शोषित एवं वंचित समुदाय विशेषकर आदिवासी, महिला, षिक्षा, साक्षरता, स्वास्थ्य और बच्चों के मुद्दों पर पिछले 25 वर्षों से सक्रिय हैं। डॉ. रोज केरकेट्टा की मातृभाषा खड़िया एवं हिन्दी भाषा साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्होने प्रेमचन्द लुङकोय के नाम से प्रेमचन्द की कहानियों का खड़िया में अनुवाद किया। खड़िया निबंध संग्रह, खड़िया गद्य-पद्य संग्रह इत्यादि आपकी अन्य रचनाएं हैं।

डॉ. मेरी स्कोलस्टिका सोरेंग, डॉ. इग्नासिया टोप्पो , ग्लोरिया सोरेंग, डॉ. सरोज केरकेट्टा आदि लेखकों का खड़िया एवं हिन्दी भाषा साहित्य के विकास में प्रमुख योगदान रहा है। कुडुख आदिवासी महिला लेखकों में एलिस एक्का, डॉ. फ्रांसिस्का कुजूर, डॉ. शांति खलखो, चौठी उरांव आदि महिलायें साहित्य एवं व्याकरण के क्षेत्र में सक्रिय हैं। मुण्डारी भाषा के शब्द कोष निर्माण में अमिता मुण्डा का विषेश योगदान रहा है। संताली समुदाय से निर्मला पुतुल मानवाधिकार एवं आदिवासियों के समग्र उत्थान में सतत सक्रिय हैं। डॉ. कुमार बांसती नें नागपुरी गीतों पर शोध कर नागपुरी कथा लेखन को एक नया शिल्प देने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई हैं। सविता केशरी नागपुरी भाषा साहित्य में के विकास में सक्रिय हैं।

पाली, राजस्थान के आदिवासी मीणा समुदाय से आने वाली डॉ. यशोदा मीना शैक्षणिक एवं सामाजिक उत्थान की गतिविधियों में सक्रिय हैं। इन्होने ‘‘मीणा जनजाति का इतिहास‘‘, ‘‘जनजातीय चेतना‘‘ नामक पुस्तक लिखीं। वर्तमान में आप अरावली विचार मंच के माध्यम से सामाजिक एवं शैक्षणिक उत्थान में सक्रिय हैं। युवा सृजनकारों में डॉ. रश्मि मीना ने आदिवासी समुदाय पर विभिन्न शोध कार्य किये जिसमें ‘‘जरायम पेशा कानून उन्मूलन हेतु जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति द्वारा किये गये प्रयासः एक अध्ययन‘‘ एवं राजस्थान में आदिवासी जनजातियों के उत्थान हेतु राजनीतिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा किये गए कार्यों का ऐतिहासिक अवलोकन आदि महत्वपूर्ण शोध कार्य हैं। डॉ. रजनी मीना ने ‘‘साहित्य, समाज और मूल्य बोध‘‘ साहित्य की रचना की तथा ‘‘आदिवासी लोक गायन की अनूठी विद्याए:पद दंगल एवं कन्हैया दंगल‘‘ पर कार्य किया। आदिवासी महिलाओं में संघर्ष, समन्वय, चेतना,सृजनात्मक,सौन्दर्य बोध,धैर्य,संवेदना इत्यादि गुणों की कमी नहीं है लेकिन इन्हें प्रेरणा एवं उत्साहवर्धन की अति आवश्यकता हैं।

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