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श्राद्ध महापर्व से पहले कुत्ते, गाय और कौओं में चल रही बात … ‘इंसान पर नहीं रहा भरोसा’

 

इसी महीने के अंत में अपने पूर्वजों के श्राद्ध का महापर्व शुरू हो रहा हैं 15 दिन तक सारे सनातनी उन्हें याद करेंगे। जीते जी उनकी सेवा नहीं की, कभी तस्सली से उन्हें प्यार सम्मान से भोजन तक नहीं करवाया, अब उन्हें तर्पण करेंगे। मनुष्य की इसी तरह की तैयारी को देखकर कर कुत्ते, गाय और कौओं में बात चल रही है, आप भी सुनें

 

कुत्ते भी नहीं आते अब इनके झांसे में…..

 

कौए समझदार हो गए, गायों ने नकार दिया औऱ कुत्ते अब मनुष्य के झांसों में नहीं फंसते…। यह सच है पर कड़वा है। हर साल श्राद्ध पक्ष में पितरों को याद किया जाता है, फिर सबसे पहले कौए, गाय को याद किया जाता है। गाय को पूड़ी, इमरती समेत अन्य पकवान बड़े चाव से खिलाने जाते हैं, लेकिन गाय गर्दन हिलाकर उन्हें खाने से मना कर देती है। जबरन उसके चारे में डाल दिया तो उस चारे के मुंह तक नहीं लगाती है। कितनी दुर्दशा हो गई मनुष्य? गाय माता भी अब तुझे गले लगाने को तैयार नहीं? जीते जी मां-बाप की सेवा की नहीं गई, मरे बाद समाज के दिखावे में श्राद्ध करने का क्या फायदा? 

 

तुम्हारी करतूतों के कारण गाय औऱ कौए भी तुम्हारे हाथ से भोजन करने को तैयार नहीं होते हैं, तुम्हें ठुकरा देते हैं। कालोनियों से गाय पहले ही गायब हो गई, तो गाय के लिए रोटी लेकर कार से जाते हैं, मगर रास्ते में मिलने वाली गाय भी उसकी तरफ देखती तक नहीं है। मनुष्य उसे तेरे श्राद्ध के पकवानों की कोई लालसा नहीं। वो जो रूखा-सूखा चारा मिल रहा है, उससे संतोषी है। वो इंसान की तरह लोभी नहीं, कपटी औऱ दिखावटी भी नहीं। 

 

मनुष्य तो जरा से लालच में सारे कपड़े खोलने में वक्त नहीं लगाता है, मगर ये मूक जीव अपने नियम-कायदों से पीछे नहीं हटते हैं। ये खैरात में मिलने वाला नहीं खाते हैं, ना ही किसी का हक छीनते हैं। मनुष्य जितना गिरा है, उसे देखकर तो अब कौओं को शर्म आती है। श्राद्ध का खिलाने के लिए उसे आवाजें लगाते रहते हैं औऱ वो सुनता तक नहीं। कहें तो कौओं ने ज्यादतर शहरों से अपने को दूर कर लिया। वो उन शहरों की ओऱ जाना तक पसंद नहीं करते हैं, जहां कौआ आव-आव की आवाजें लगाई जाती है।

 

कभी सोचा, काला कुत्ता भी शनिवार को आपकी दी हुई रोटी को क्यों नहीं खाता है? हकीकत में उसे गलत तरह से कमाए गए धन से रोटी खाना पसंद नहीं है, जो कि मनुष्य की पहली पसंद है। इतना ही होता तो भी सब्र कर लेते, मगर अब गाय औऱ कुत्ते दरवाजे पर आकर भी खड़े नहीं होते हैं। छत पर कौओं की आवाजें सुनाई नहीं देती है। वो समझ गए कि मतलबी मनुष्य के घरों पर जाकर क्यों अपना आत्म सम्मान गिराया जाए? क्यों हम अपनी नजरों से गिरें? उनके जाकर कैसे अपनी बिरादरी में मुंह दिखाएंगे? श्राद्धों में तो जिस तरह से मनुष्य तुझे आईना दिखाया जाता है, उस बारे में पल भी सोचकर संभल जाए तो आने वाला कुछ समय सुधर सकता है।

 

गाय-कौओं और कुत्तों की इस तरह की चल रही बातों पर मनुष्य के कोई असर नहीं हो रहा और वो खिलखिलाकर हंस रहा है। उसे अपने कृत्यों पर रंज नहीं। वो मां-बाप को जीते जी वृद्धाश्रम में छोड़कर आने को अपना स्टेट्स समझता है। गाय की सेवा करने के बजाय कुत्तों को बैडरूम में सुलाना पसंद करता है। 

 

पक्षियों को दाना देने के बजाय उन्हें पिंजरे में कैद करके घर की शोभा बढ़ाना पसंद करता है। खुद की औलाद से ज्यादा कुत्तों को तवज्जो देता है, उसे माय बेबी, माय शोना बोलना पसंद करता है। जिसको जो करना हो वो करें, लेकिन कुछ तो ऐसा करे मनुष्य, जब रात को सोये तो तू खुद का विश्लेषण कर सके, अंतरात्मा की आवाज सुन सके। फिर तेरी दी हुई रोटी गाय खाएगी, कुत्ता भी मुंह नहीं फेरेगा और कौएं बिन बुलाए श्राद्ध में खुद आएंगे। ।

 

डा. उरुक्रम शर्मा

Aakash Agarawal

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